जयपुर.लापोडिया गांव सिर्फ पानी बचाने के लिए ही नहीं पशुपालन और गांव की स्थिति सुधारने के लिए भी जाना जाता है. लापोडिया पशुपालन के क्षेत्र में एक अग्रणी गांव बन गया है. साथ ही यहां की ग्रीन बेल्ट भी इस गांव को अनूठी पहचान दिलाती है. ईटीवी भारत जल क्रांति सीरीज के तीसरे पार्ट में आपको लापोडिया के आत्मनिर्भर बनने की कहानी से रूबरू करा रहा है.
जब रोजगार बनी बड़ी समस्या...
अस्सी के दशक में जयपुर शहर से 80 किलोमीटर की दूरी पर लापोडिया गांव के लोग सूखे के कारण राजधानी की ओर पलायन करने लगे थे. गांव का हर युवा जयपुर में जाकर रोजगार खोलने का सपना देख रहा था. ऐसे दौर में साल 1988 में गांव के ठिकानेदार परिवार के सदस्य लक्ष्मण सिंह ने अपने गांव के लिए कुछ करने की ठानी और जयपुर से लौटकर गांव में ग्राम विकास नवयुवक मंडल का गठन किया. ताकि गांव के युवाओं को एकजुट कर सार्थक प्रयास किए जाएं और पलायन को रोका जाए. परंतु उनके सामने चुनौती शेष थी कि कैसे गांव में रोजगार सृजित किया जाए. उन्होंने गांव की दशा और स्थिति को देखते हुए पानी को जमा करते हुए कृषि और पशुपालन पर फोकस किया. जिसके बाद 40 बरस में गांव की स्थिति ऐसे तब्दील हुई कि अब रोजगार की तलाश में आसपास के लोग लापोडिया आने लगे हैं.
पशुपालन के रोजगार से रुका पलायन...
लक्ष्मण सिंह लापोडिया, गांव में ये एक ऐसा नाम बना कि आज लापोडिया गांव जल संरक्षण के साथ-साथ रोजगार के क्षेत्र में आत्मनिर्भर होकर अपनी पहचान को मजबूत बनाते जा रहा है. लक्ष्मण सिंह लापोडिया ने गांधी शांति प्रतिष्ठान से प्रकाशित 'आज भी खरे हैं तालाब' नाम की किताब पढ़ी और उसके बाद गांव के देव सागर तालाब को संवारने का संकल्प लिया.
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वे बताते हैं कि इस काम में गांव का हर शख्स उनके साथ आया और रोली-मोली हाथ में लेकर तालाब को बचाने की शपथ ली. परंतु तालाब बचाने के साथ-साथ इसे जीवित रखने के लिए इसमें पानी चाहिए था और इस पानी की बदौलत खेती और पशुपालन में आत्मनिर्भर बनाना था. इसलिए गांव के चारागाह क्षेत्र पर काम शुरू हुआ, जहां बरसात के पानी को सहेजने के लिए गांव वालों के प्रयास से चौके बनाए गए.
लगभग एक दशक मेहनत करने के बाद इन चौकों की बदौलत गांव का आसपास का क्षेत्र हरे भरे वन में तब्दील हो गया. चारागाह क्षेत्र में 30 प्रकार की घास साल भर मौजूद रहने लगी. जिसके कारण पशुधन से गांव समृद्ध हो गए, लक्ष्मण सिंह लापोडिया कहते हैं कि एक वक्त गांव के हर घर में मवेशी होना संभव नहीं था. क्योंकि गांव वालों के पास चारे पानी का इंतजाम नहीं था. ऐसे में उन्होंने निजी प्रयासों से पैसा जमा कर गुजरात से गिर गाय संवर्धन के लिए 80 नंदी मंगवाए. जिनके कारण आसपास के क्षेत्र में गायों की नस्ल में सुधार हुआ और आज यहां की गिर गाय रोजाना 15 लीटर दूध दिया करती है. जिससे घर की जरूरतों को पूरा करने के बाद दूध को बेचा जाता है. क्षेत्र में बड़ी संख्या में पशुपालन होता है. पशुपालकों के पास गाय के अलावा भैंस और बकरी के भी रूप में बड़ा पशुधन मौजूद है. लक्ष्मण सिंह लापोडिया की टीम में काम करने वाले हनुमान सिंह बताते हैं कि आप इस गांव से रोजाना 10,000 लीटर से ज्यादा दूध जयपुर जैसे शहर को निर्यात किया जाता है.
गांव वालों ने निखारा गोचर...
लापोडिया गांव के लोगों का अपनी गोचर भूमि को सुधारने के लिए छोटी-छोटी बैठकों से शुरू हुआ काम बड़े बड़े फैसले के बाद साकार हो पाया. गांव के लोगों ने गांव के लिए कुछ ऐसे नियम तय किए.
- पशुपालक अपने साथ कुल्हाड़ी लेकर नहीं जाएगा
- घास को नहीं खोदा जाएगा
- वन्य जीव को नहीं मारा जाएगा
- प्रकृति का संरक्षण किया जाएगा
- पक्षियों को घोंसला और अंडा देने के लिए स्थान सुरक्षित रहेगा
यूं तैयार हुआ प्रकृति को संरक्षित रखने का बेल्ट, नाम रखा 'देव-बनी'
गांव के सबसे बड़े अन्न सागर तालाब के बीच में लाखेटा (टापू) के रूप में एक सुरक्षित भूमि को भी इसी परिपेक्ष में तैयार किया गया. लापोडिया समेत आसपास के गांवों ने प्रकृति को सुरक्षित रखने के लिए ग्रीन बेल्ट के रूप में वन्य भूमि को भी बचाने के लिए प्रयास शुरू किए हैं. जिस तरह से पशुधन के लिए गोचर भूमि को आरक्षित किया गया, पानी के लिए तालाब बनाए गए. उसी प्रकार से वन्यजीवों के लिए देव-बनी को निर्धारित किया गया. जहां पेड़ों पर पक्षी स्वछंद माहौल में घोंसले बनाकर अंडे दे सके, वन्य जीव अपने वंश की वृद्धि कर सके और इसमें किसी प्रकार का मानव दखल ना हो.