जयपुर.सुनहरी सी जमी पर रंगों का तानाबाना है, हाथों ने मिलके रंगों से सृष्टि के भव्य नजारों को सजाना है. फूलों में खिलते रंग हों या हिचकोले खाती बेले, ये सब मीनाकारी आर्ट के जरिए कलाकार गुलाबी नगरी में संजोकर रखे हैं. हालांकि हर जगह की मिनाकारी की अपनी खासियत, तकनीक और शैली है. लेकिन जयपुर शहर के अजमेरी गेट के अंदर तंग गलियों में अपनी अलग मिनाकारी की नायाब कला को संजोए कई परिवार हैं, जो पीढ़ियों से इस काम को कर रहे हैं. लेकिन अफसोस कोरोना ने उनकी कला की कद्र को कम कर दिया है, जिसकी वजह से मीनाकारी आर्ट अब बंद कमरों में धूल फांक रही है.
मीनाकारी की कला में अहम योगदान देने वाले भट्टी के मजदूर महमूद कहते हैं कि, ये उनका खानदानी काम है. इसको करते हुए उन्हें कई साल बीत गए. लेकिन कोरोना के बाद स्थिति बेहाल हो गई. जबकि उससे पहले बहुत अच्छा काम था. लेकिन अब न माल बिक पा रहा है और न ही देश-विदेश जा पा रहा हैं, जिसके चलते काम-धंधा बिल्कुल चौपट हो गया है. इसका असर उनके परिवार की आर्थिक स्थिति पर पड़ रहा है. महमूद का कहना है कि, पहले 7-8 कामदार उनके साथ काम पर लगते थे. आज मजबूरन एक मशीन पर सिर्फ एक आदमी ही काम को अंजाम दे रहा है, जिसके तहत मजदूरी तो दूर की बात लागत भी निकालना मुश्किल है.
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इनमें से कुछ परिवार ऐसा मानते हैं कि उनके पूर्वजों की बारीकी को उन्होंने अपनाया और आज तक ये काम कर रहे हैं. आर्टिस्ट मोहम्मद शाहरुख बताते हैं कि, वो अपने पूर्वजों की चौथी पीढ़ी है और ये काम कर रहे हैं. ये मिनाकारी बनारस की प्रसिद्ध पेन्टिंग है, जो अब सोने, चांदी और तांबे जैसी धातुओं पर होती है. लेकिन उनके पूर्वजों ने अपनी अलग शैली से वाइट मेटल एल्यूमिनियम मीनाकारी शुरू की, जिसको करते हुए उनके परिवार को करीब 20 साल हो चुके हैं. इस कला को विदेशी पर्यटक खासा पसंद करते है यही वजह है कि, इसकी सप्लाई देश-विदेश तक होती है. इस मिनाकारी में फूल-पत्तियां, बेल, परिंदे, बेलबूटे और खुशनवीसी जैसे रूपांकन लोकप्रिय है. ये कुछ ऐसे डिजाइन्स हैं. जो सदियों से इस कला से जुड़े हुए हैं. शिल्पकार छोटे से छोटे कलाकृति को हाथ से ही बनाते हैं और उसके बाद डिजाइन को उकेरा जाता है.
क्या है मीनाकारी का इतिहास