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Ground Report: वो बरसात और तबाही के निशान, लाल डूंगरी के 'जख्म' अब भी हरे - lal dungri jaipur

"खुदा हमको ऐसी खुदाई न दे, कि अपने सिवा कुछ दिखाई न दे" मशहूर गजल की इन पंक्तियों के मायने लाल डूंगरी कच्ची बस्ती में आकर बदल जाते हैं. जयपुर के गलता गेट इलाके में आजादी के पर्व से ठीक एक दिन पहले इस बस्ती पर आफत का पहाड़ टूट पड़ा था. छोटी पहाड़ियों की तराई में बसी बस्ती के करीब 300 मकान मिट्टी के दरिया में धंस गए. उस एक बारिश के जुल्म के निशानात एक हफ्ते बाद भी ज्यों के त्यों हैं. यहां के बाशिंदों के जख्मों पर महज दो वक्त के रोटी का मरहम लगाकर इतिश्री की जा रही है.

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लाल डूंगरी के 'जख्म' अब भी हरे

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Published : Aug 22, 2020, 2:16 PM IST

जयपुर.लाल डूंगरी में लोह लोखंड की शक्ल में बिखरे दर्जनों छोटे सवारी वाहन, मिट्टी से भरे आशियाने और उसी ढेर पर रात बिताने को मजबूर यहां के बाशिंदे. इस बात की गवाही देते हैं कि यहां राहत के नाम पर आश्वासन की खेप ही पहुंची है. दिन के समय बस्ती में कुछ गहमागहमी नजर आती है. प्रशासन के कुछ लोग भोजन की व्यवस्था करते दिखाई पड़ते हैं. कुछ सामाजिक कार्यकर्ता घर-घर जाकर दो वक्त की रोटी का सहारा बने हुए हैं और सूखा राशन भी बांटा गया है.

लाल डूंगरी के 'जख्म' अब भी हरे

गणेशपुरी के सामुदायिक भवन में रात को सिर छुपाने की व्यवस्था के दावे भी किए जाते हैं. सिविल डिफेंस की टीमें जेसीबी और ट्रैक्टर-ट्रॉली की सहायता से मिट्टी और मलबा भी निकाल रही है. अपने वाहनों को ये लोग जेसीबी से नहीं निकलवा रहे हैं. इनका कहना है कि जेसीबी बड़ी बेदर्दी से इनकी रोजी-रोटी के साधनों को कबाड़ समझकर ही निकालती है. इन लोगों की फिक्र चिंता और तकलीफ दिन के उजाले में साफ नजर नहीं आती है, क्योंकि किसी के भी आगमन की उम्मीद में असल तकलीफें छुप जाती हैं. लिहाजा Etv Bharat सियाह रात के अंधेरे में ये जानने पहुंचा कि घर से बेघर हुए लोग मौसमी अलर्ट के दौर और रिमझिम बारिश के सिलसिले में अपनी रातें कैसे काट रहे हैं, कहां सिर छुपाते हैं और कैसे इस आपदा का सामना कर रहे हैं.

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'...वरना छज्जे की नीचे सारी रात बैठे रहते हैं'

ईटीवी भारत की टीम रात के समय बस्ती में पहुंची, जहां गंगेश्वर मंदिर के पास रहने वाले घनश्याम सांखला और उनकी पत्नी आरती घर के बाहर छज्जे के नीचे बैठे मिले. घनश्याम जयपुर के ही निवासी हैं. पांच साल से इसी बस्ती में रह रहे हैं. मकानों में पेंटिंग का काम करके घर चलाते हैं. मकान में चार से पांच फीट तक मिट्टी जमा हो गई थी. घर का सारा सामान खराब हो चुका है. एक कार थी, जो मिट्टी से निकले अवशेष की तरह नजर आती है.

मकान के ढेर पर बैठी जिंदगी

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घनश्याम की आंखों में आंसू नहीं सूख रहे. बहुत मेहनत कर किसी तरह आशियाने को संवारा था, वो सुकून कुछ घंटों की बारिश भी न सह सका. घनश्याम ने बच्चों को उनकी नानी के घर भेज दिया है. पति-पत्नी रात में मकान की छत पर दरी बिछाकर कुछ पलों की नींद निकाल लेते हैं. बूंदाबांदी होने लगती है, तो घर के बाहर दो हाथ के छत के नीचे बैठे रहते हैं. पति-पत्नी ने भरे गले से अपनी व्यथा सुनाई, कुछ भी बाकी नहीं रहा सब कुछ खत्म हो गया.

मकान के ढेर पर बैठी जिंदगी

बस्ती के चौक में कुछ ई-रिक्शा सही सलामत नजर आए, इनमें लोग बैठे बतिया रहे थे. लोग आपस में एक दुसरे से दुख साझा करते नजर आए, पूछा तो पता चला कि रोजमर्रा की जिंदगी को पटरी पर लाने के लिए किराए पर ई-रिक्शा ले आए हैं. उनके अपने वाहन या तो कबाड़ होकर निकले हैं, या फिर अभी जमीदोंज ही हैं. एनीकट की ओर से जाने वाले रास्ते पर एक मकान पूरी तरह ध्वस्त मिला. सामान फर्नीचर सब तबाह, दीवारों के आलों में कुछ घरेलू सामान नजर आया. मिट्टी के ढेर पर बैठे टीकमचंद ने बताया कि वो अपने मकान के ढेर पर बैठा है. तीन कमरे थे, पानी का ऐसा प्रवाह आया कि दीवारें ही बहा ले गया. उसकी मासूम बच्ची भी इसी दीवार की चपेट में आने से चोटिल हो गई. टीकम की आंखों में बेबसी मायूसी बदकिस्मती सब एक साथ नजर आती है.

'...वरना छज्जे की नीचे सारी रात बैठे रहते हैं'

ऑटो नहीं बदकिस्मती खरीद ली?

बिहार के सरजू साहू ईटीवी का बूम देखते ही उम्मीद से भर उठे. जिंदगी की जद्दोजहद तो इंसान किसी तरह कर भी लेता है, लेकिन बदकिस्मती हाथ धोकर पीछे ही पड़ जाए तो कोई क्या करें? सरजू ने पाई-पाई जोड़ और कुछ लोन लेकर फरवरी में नया ऑटो लिया था. उससे पहले किराए का ऑटो चलाते थे. खुद का ऑटो लिया तो लगा जैसे किस्मत के बंद पट खुल गए और काम भी अच्छा चलने लगा. लेकिन फिर कोरोना का लॉकडाउन लगा तो जिंदगी ठहर गई. ऑटो के पहिए क्या थमें, किस्मत ही थम गई. अनलॉक हुआ तो सरजू ने फिर से घर को पटरी पर लाने की कोशिश शुरू की. कुछ दिन ही ऑटो चला और फिर 14 अगस्त की बारिश और पहाड़ी से फिसलकर आई तबाही, सरजू का ऑटो बहा ले गई. अब मिट्टी में दबे ऑटो को देखकर बरबस ही उनके आंसू निकल आते हैं.

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दो रोटी की बूढ़ी मशक्कतें

रात के अंधेरे में हमें एक ऐसी तस्वीर भी नजर आई, जिसने हमारी आत्मा झकझोर दी. बुजुर्ग दंपत्ति पांच फीट मिट्टी में दबे घर के आंगन में जीवन-जीने की पुरजोर कोशिश करता नजर आया. कोठरी के बाहर तीन हाथ निकली टीन शेड ही अब उनका घर है. बुजुर्ग महिला राधिका का ताल्लुक नेपाल से है. आपदा का अर्थ राधिका ने खूब समझा है. कहीं से लकड़ियां इकट्ठा कर वो बिना चूल्हे के ही किसी तरह भोजन की व्यवस्था करती नजर आईं. कहती हैं कि छोटा सा आशियाना था, वो भी नहीं रहा. उनके बुजुर्ग पति बहुत मिट्टी निकाल चुके हैं. उम्र इजाजत नहीं देती होगी, लेकिन रात में भी वे थोड़ी-थोड़ी मिट्टी परात में भर के आंगन से बाहर फेंकते नजर आए. उनकी तल्लीनता देखकर लगा, जैसे कोई पुरावेत्ता किसी सभ्यता की खोज में लगा है.

सपनों की साइकिल पर गरीबी की मिट्टी

कुछ तस्वीरें अपने आप में प्रेमचंद की कहानी साबित होती हैं. ऐसी ही एक तस्वीर इस बस्ती में नजर आई. एक आंगन की खुदाई में से बच्चे की साइकिल निकली. हालांकि साइकिल पूरी तरह मिट्टी के आवरण में लिपटी थी. सब कुछ खराब हो चुका था, लेकिन नन्हा बच्चा अंधेरी रात में साइकिल के हिस्सों पर कपड़ा मारकर दोबारा उसे चलाने लायक बनाने के सपने देख रहा था. उसकी आंखों में चमक थी, लेकिन खुदाई में निकली उस साइकिल को देखकर एक इंसान के तौर पर हमने यही सोचा कि खुदा हमको ऐसी खुदाई न दे.

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विधायक साहब एक बार आए थे, फिर नहीं आए

अंधेरा था, सकरी गलियों में मिट्टी की गाद पर पैर जमाते हुए हम आगे बढ़े. एक छोटी खुली चारदीवारी में मिट्टी के ढेर पर बैठी कुछ महिलाएं भोजन करती नजर आईं, तो हमें भी तसल्ली मिली. जिससे भी पूछा उसने कहा कि भोजन की कोई समस्या नहीं. जिला प्रशासन और सामाजिक संगठन की ओर से खाने का प्रबंध किया जा रहा है. दोनों वक्त का खाना मिल रहा है. भोजन में सब्जी, चपाती और चावल मिल रहा है. यहीं शुभम महावर मिल गए. उन्होंने बताया कि रोटी से ज्यादा तुरंत मुआवजे की जरूरत है. जिंदगी को पटरी पर लाने की जरूरत है. विधायक रफीक खान आपदा का दौरा करने आए थे. देखकर आश्वासन दिया और चले गए, उसके बाद नहीं आए. प्रशासन की टीम भी आई, लेकिन फौरी राहत के लिए सात दिन बाद भी कुछ नहीं किया गया.

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बहरहाल, मौसम विभाग ने अगले 72 घंटों में भारी बारिश का अलर्ट जारी किया है. किसी तरह मिट्टी खुरचकर निकले आंगन में सीली दरियां बिछाकर बच्चों को सुलाकर, बेबस मां-बाप और परिजन दीवार के सहारे बुत बने सारी-सारी रात बैठे रहते हैं. आसमान के बादलों की गड़गड़ाहट अब दहशत पैदा करती है. छोटी बच्ची देर रात तक मिट्टी निकालने में पिता की मदद कर रही है. आंखों से नींद जैसे कोसों दूर हो गई है. प्रशासन अलबर्ट हॉल की निर्जीव ममी को डूबने से ऐन पहले बचा लेता है. सरकार अपनी कुर्सी बचाने के लिए एक दिन का 12 लाख और एक वकील का 40 लाख वहन कर सकती है. तो इन तगारिओं का बोझ भी कुछ हल्का कर सकती है. ये दर्द भरे चेहरे, महज वोट नहीं है. हो सकता है इनके पास पुख्ता कागज न हो, लेकिन इनकी तकलीफ में कोई खोट नहीं है.

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