जयपुर. राजस्थान में 3 विधानसभा सीटों सुजानगढ़, सहाड़ा और राजसमंद के नतीजे स्पष्ट हो गए हैं. दिखने में तो यह नतीजे ऐसे लग रहे हैं जैसे यथास्थिति बरकरार रही. ना सत्ताधारी दल कांग्रेस ने कुछ खोया, ना विपक्षी दल भाजपा ने कुछ पाया, लेकिन इस बार इन चुनावों में एक ऐसा रिकॉर्ड भी बना है, जो रिकॉर्ड से पहले मुख्यमंत्री के बेटे भी नहीं बना सके थे और वह था किसी दिवंगत विधायक के निधन पर चुनाव लड़ने वाले उनके परिजनों की जीत से दूरी.
इस बार के चुनावी नतीजों में जहां राजसमंद से दिवंगत विधायक किरण माहेश्वरी की बेटी कीर्ति महेश्वरी, सुजानगढ़ विधानसभा से दिवंगत विधायक मास्टर भंवर लाल मेघवाल के बेटे मनोज मेघवाल और सहाड़ा विधानसभा से दिवंगत विधायक कैलाश त्रिवेदी की पत्नी गायत्री त्रिवेदी ने जीत दर्ज की है. इसका मतलब साफ है कि इस बार जनता ने सहानुभूति को ही जीत का आधार बनाया है, जबकि आज तक के इतिहास में राजस्थान में जब भी किसी विधायक के निधन होने पर उसके परिजन को टिकट दिया गया तो वह हमेशा चुनाव हारा ही है.
बता दें कि राजस्थान में अब तक विधायकों या सामान्य चुनाव में ही किसी विधायक प्रत्याशी के निधन के चलते 19 बार उपचुनाव हुए हैं. इनमें से 8 उपचुनाव में कांग्रेस पार्टी ने चुनाव जीता है. 8 बार भारतीय जनता पार्टी ने उपचुनाव में जीत दर्ज की है, तो दो बार जनता पार्टी और एक बार एनसीजे पार्टी के विधायक बने हैं, लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि इन 19 उपचुनाव में जिन विधायकों का निधन हुआ, उनकी जगह जब उनके परिजनों को टिकट दिया गया तो जनता ने उन्हें नकारा है.
पढ़ें-उपचुनाव के लिटमस टेस्ट में पास हुए राजनीति के जादूगर, दो सीटें जीती, तीसरी में हार का मार्जिन किया कम
1965 में राजाखेड़ा विधायक प्रताप सिंह की मृत्यु के बाद उनके बेटे एम सिंह ने चुनाव लड़ा, लेकिन वह हार गए. इसके बाद 1978 में रूपवास विधायक ताराचंद की मृत्यु के बाद उनके बेटे ने चुनाव लड़ा, वह भी चुनाव हार गए. इसके बाद 1988 में खेतड़ी विधायक मालाराम के निधन के बाद उनके बेटे एच लाल को टिकट दिया गया, लेकिन वह भी चुनाव हार गए.
इसी तरीके से साल 1995 में बयाना विधानसभा से विधायक बृजराज सिंह की मृत्यु के बाद उनके बेटे शिव चरण सिंह को टिकट दिया गया, लेकिन वह भी चुनाव हार गए. यहां तक कि साल 1995 में बांसवाड़ा विधानसभा के विधायक पूर्व मुख्यमंत्री हरदेव जोशी के निधन के बाद जब उनके बेटे दिनेश जोशी को पार्टी ने टिकट दिया, तो वह भी चुनाव नहीं जीत सके.
यही हाल साल 2000 में हुआ, जब लूणकरणसर विधायक भीमसेन की मृत्यु के बाद उनके बेटे वीरेंद्र को टिकट दिया गया, लेकिन वह चुनाव हार गए, तो वहीं साल 2002 में सागवाड़ा विधायक भीखाभाई के निधन के बाद उनके बेटे सुरेंद्र कुमार को टिकट दिया गया, लेकिन वह भी चुनाव हार गए. साल 2005 में लूणी विधायक रामसिंह विश्नोई की मृत्यु के बाद उनके बेटे मलखान विश्नोई को टिकट दिया गया, लेकिन वह भी चुनाव हार गए. ऐसे में आज तक किसी विधायक के निधन पर उनके परिजनों को टिकट देने पर सहानुभूति का कोई लाभ किसी पार्टी को नहीं मिला है. लेकिन जनता ने इस बार सहानुभूति के आधार पर वोट मांगने गए तीनों नेताओं को निराश नहीं किया और तीनों की झोली में जीत डाली है.