जयपुर.राजनीति के पंडित सियासत को हमेशा अनिश्चितता से भरा हुआ मानते हैं. फिलहाल राजस्थान में भी ऐसा ही कुछ दिख रहा है. यहां लगातार इस बात की चर्चा है कि अशोक गहलोत सरकार अस्थिर है. मतलब जो दिख रहा है, उसके कई मायने हो सकते हैं. हर छोटे अंतराल के बाद यह समझा जाता है कि अब राजस्थान की सरकार बिना किसी परेशानी और उठापटक के अपना कार्यकाल पूरा करने वाली है. उसी वक्त मुख्यमंत्री अशोक गहलोत बेचैन नजर आते हैं और पार्टी के भीतर उनके प्रतिद्वंद्वी समझे जाने वाले सचिन पायलट अपने तेजतर्रार व्यवहार के उलट सब्र का दामन थामे हुए देखे जाते हैं.
इन सबके बीच बयानबाजी का दौर है बदस्तूर जारी है. इसमें गहलोत का हमलावर होना और पायलट का रक्षात्मक होना बदलते दौर की सियासत की ओर इशारा भी करता (Political indication of Sachin Pilot defensive stance) है. समझा जा सकता है कि जब राहुल गांधी को पहली बार कांग्रेस की कमान बतौर अध्यक्ष सौंपी गई, तब युवा कांग्रेस के जरिए पीढ़ी परिवर्तन की बात ने जोर पकड़ा था. इस सिलसिले में उम्रदराज नेताओं को अपनी कुर्सी पर मंडराता हुआ खतरा नजर आया और यह तस्वीर करीब एक दशक बाद राजस्थान के जरिए पूरा देश देख रहा है. जिसकी बुनियाद पायलट को राजस्थान में बतौर प्रदेशाध्यक्ष कमान सौंपे जाने के बाद रख दी गई. पायलट युवा पीढ़ी की नुमाइंदगी कर रहे थे, तो गहलोत तजुर्बे की धार पर सवारी करते हुए देखे गए.
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एक वक्त था जब गहलोत ने राजस्थान कांग्रेस की कमान संभाली थी, तब भी कुछ ऐसा ही वाकया हुआ था. दिग्गज जाट नेता परसराम मदेरणा को पूरा राजस्थान सूबे की कमान सौंपी जाने को निश्चित मान चुका था और अगली पीढ़ी के नेता के तौर पर साल 1998 में गहलोत राजस्थान में युवा मुख्यमंत्री के तौर पर नजर आए. फिलहाल मौजूदा तस्वीर साफ कर देती है कि राजस्थान में कांग्रेस नेताओं के बीच जारी बयानबाजी का दौर सियासी अस्थिरता का सीधा संकेत है, तो इस बयानबाजी के बीच बीजेपी नेताओं के बोल यह साफ करते हैं कि पायलट में भगवा ब्रिगेड का इंट्रेंस्ट क्यों है?
गहलोत का अग्निपथ: हाल ही में केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने अग्निपथ स्कीम को लांच किया था जिसका मुखर विरोध करने के लिए पूरी कांग्रेस एकजुट नजर आई थी. इस दरमियान राहुल गांधी से ईडी की पूछताछ और कांग्रेस नेताओं के विरोध का सिलसिला भी दिल्ली दरबार में नजर आया था. गहलोत भी अपनी पूरी सरकार को लेकर दिल्ली पहुंचे और विरोध के कार्यक्रम में बढ़-चढ़कर शिरकत की. माना जा रहा था कि आलाकमान की नजर में राजस्थान की कांग्रेस को लेकर दिल्ली में धरना देना शक्ति प्रदर्शन का ही संकेत था. इससे पहले राज्यसभा चुनाव में फंसे पेंच के बीच तीन नेताओं को दिल्ली की च्वॉइस पर राजस्थान से निर्वाचित करके भेजा जाना भी किसी परीक्षा से कम नहीं था और गहलोत ने यह काम भी बखूबी पूरा किया. यही नहीं, गहलोत ने उदयपुर में आयोजित कांग्रेस के चिंतन शिविर के मैनेजमेंट के जरिए अपनी काबिलियत को बखूबी दिल्ली वाले नेताओं के सामने साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. कार्यक्रम के आखिरी दिन विक्ट्री साइन भी दिखाया.
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हर परीक्षा के बावजूद जब राहुल गांधी ने दिल्ली में यह बयान दिया कि पायलट का सब्र उनके जैसा (Rahul Gandhi praised Sachin Pilot) है, तो गहलोत की बेचैनी बढ़ना भी राजनीति के लिहाज से लाजमी थी. ऐसे में गहलोत सीकर दौरे पर कोठ्यारी के कार्यक्रम में खुलकर पायलट का नाम लेकर फेरबदल और सरकार गिराने की साजिश का एक बार और जिक्र करते हैं जिसका जवाब टोंक जाकर सचिन पायलट देते हैं. इसमें राहुल गांधी वाले सब्र का जिक्र और कांग्रेस के लिए फिक्र को जाहिर किया जाता है. इसका मतलब सियासी गलियारों में यही समझा जा रहा है कि अग्निपथ पर गहलोत की परीक्षा लंबी है और इस इम्तिहान का दूसरा छोर फिलहाल नजर नहीं आता है.
राजस्थान की दो पीढ़ी के बीच की खींचतान: हर राजनीतिक दल में दो अलग-अलग पीढ़ी के बीच वैचारिक मतभेद और सत्ता पर काबिज होने की होड़ एक सामान्य सी बात है. इसी प्रोसेस के जरिए गहलोत राजस्थान की राजनीति के सिरमौर बने, तो पायलट को भी इसी कसरत के बीच सुर्खियां हासिल हुई थीं. राहुल गांधी शुरुआत से पारंपरिक कांग्रेस के बीच बदलाव के समर्थक माने जाते हैं. यही कारण है कि पीढ़ी परिवर्तन के फॉर्मूले को जब कांग्रेस की कोर कमेटी ने हाशिए पर पहुंचा दिया, तो चुनावी हार के बाद राहुल खुद बैकड्रॉप पर आकर खड़े हो गए. माना जा रहा है कि पायलट के साथ सब्र को लेकर राहुल गांधी की तुलना का इशारा कहीं उम्रदराज नेताओं के साथ-साथ युवा नेताओं की कांग्रेस में बराबर की भागीदारी से जुड़ा हो सकता है.
फिलहाल देखा जाए तो प्रदेश की राजनीति में गहलोत की पीढ़ी के नेताओं में अग्रिम पंक्ति पर मुख्यमंत्री काबिज हैं, तो उनके पीछे की कतार में कोई बड़ा चेहरा नजर नहीं आता है. सीपी जोशी को विधानसभा अध्यक्ष पद मिलने के बाद इस प्रतिस्पर्धा में गहलोत अकेले खिलाड़ी के रूप में शीर्ष पर कायम हैं. जबकि पायलट के लिए चुनौतियों का सिलसिला आगे तक बना रहने वाला है, चाहे जातियों से जुड़े नेता हों या फिर जमीनी वर्चस्व पर कायम चेहरे हों, 40 से लेकर 60 वर्ष के नेताओं की यह पंक्ति लंबी नजर आती है. जिनमें गहलोत मंत्रिपरिषद में शामिल जाट-ब्राह्मण नेताओं को आगे तक माना जा रहा है, तो दिल्ली में राहुल गांधी के करीबी एक राजपूत नेता को भी दौड़ में हमेशा गिना जाता है.
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इन सबके बावजूद पायलट जमीनी पकड़ और भीड़ जुटाने वाले नेता के तौर पर सबसे आगे खड़े दिखते हैं. ऐसे में राजस्थान की राजनीति में अगर वैभव गहलोत के लिए गहलोत जमीन तलाशने की कोशिश करेंगे, तो समझा जा सकता है कि सबसे बड़ी चुनौती वैभव के सामने कौन होगा? याद रखना चाहिए कि पायलट ने कहा था कि उनकी सिफारिश पर दिल्ली दरबार ने जोधपुर से वैभव गहलोत को सांसद पद के लिए प्रत्याशी बनाया था. यह बयान भी गहलोत की उस प्रतिक्रिया के विरोध में था, जिसमें सीएम ने गहलोत ने कहा था कि पायलट को उनके कहने पर ही राजस्थान में प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया था.
राहुल गांधी का बयान:सब्र का फल मीठा ही होता है, हर सिलेबस में इस कहावत को अच्छे से समझाया जाता है. अब राजनीति में भी इस बात के मायने अक्सर कुर्सी पर कायम होने की भागदौड़ के बीच देखे जाते हैं. राहुल गांधी जब ईडी की पूछताछ के बाद मीडिया से मुखातिब होते हैं, तो देशभर के मीडिया चैनल के सामने उनका एक बयान, जिसमें वे खुद को पायलट के सब्र से जोड़कर देखते हैं, को भी अलग-अलग नजरिए से लोग देख सकते हैं, परंतु डेढ़ साल की दूरी के बाद मुलाकातों के सिलसिले को माना यही जाता है कि पायलट पर भरोसा फिलहाल पूरी तरह से खत्म नहीं हुआ है और राजस्थान में भी गहलोत का विकल्प हो सकते हैं. लिहाजा गहलोत-पायलट के बीच बयानबाजी का दौर लंबे अरसे से कायम है.
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बीजेपी को फूट का इंतजार:चुनावी जोड़ बाकी के जानकार यह काफी पहले ही बता चुके हैं कि गुर्जर बाहुल्य पूर्वी राजस्थान में मिली कांग्रेस की बढ़त ने ही राजस्थान की सत्ता पर पंजे की पकड़ हो स्थापित किया था. ऐसे में बीते दिनों नेता प्रतिपक्ष गुलाबचंद कटारिया की तरफ से पायलट को लेकर दिए गए बयान में कुछ नया नहीं है. बीजेपी नेताओं की पायलट में दिलचस्पी को अगर समझा जाए, तो केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत के साथ-साथ उप नेता प्रतिपक्ष राजेंद्र राठौड़, पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष सतीश पूनिया के बयान भी यह दिखाते हैं कि पायलट को बीजेपी में तवज्जो ज्यादा ही मिल रही है. पर पायलट पर इस मेहरबानी का असल कारण अगर समझें, तो यह नजर आता है कि फूट का फायदा अक्सर विरोधियों को होता है. अलग-अलग मुख्यमंत्री के चेहरे की बात बीजेपी में कई मर्तबा गहलोत कर चुके हैं, तो भारतीय जनता पार्टी भी इंतजार में है कि कांग्रेस के कुनबे की कलह चाहे चुनाव तक चले या फिर हाल ही में किसी नतीजे में तब्दील हो, फायदा कमल के निशान को ही होगा. यही वजह है कि बीजेपी के नेता सार्वजनिक बयानों में पायलट का मोह नहीं छोड़ पा रहे हैं.
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जिन पर आरोप, उन पर ही मेहरबान: पायलट ने जब राजस्थान की मौजूदा सरकार से बगावत करके अपने समर्थकों के साथ अज्ञातवास लिया था. तब से लेकर अब तक गहलोत अपने सार्वजनिक बयानों में हॉर्स ट्रेडिंग, नेताओं की खरीद-फरोख्त, 10 करोड़ रुपए लेकर बिक जाने जैसे कई आरोप खुलेआम लगा चुके हैं. दावा किया जाता है कि आलाकमान को भी ऐसे सबूत सौंपे गए हैं, जिनमें पायलट गुट के नेताओं के जमीर बिकने की बात जाहिर होती है. पर सवाल है कि अगर इतना सब कुछ हो गया, तो पायलट गुट के नेताओं को फिर से गहलोत सरकार में मंत्री पद पर क्यों कायम किया गया है, पायलट के समर्थन में पीसीसी छोड़कर जाने वाले नेताओं को राजनीतिक नियुक्तियों में जगह क्यों दी गई है और क्या वजह है कि हर जलसे में कांग्रेस नेताओं की अगली पंक्ति में सचिन पायलट का चेहरा नजर आता है? यह तमाम सवाल इस बात को जाहिर करते हैं कि गहलोत हर बार अपने बयानों के जरिए बेबसी का इजहार कर रहे हैं या फिर जो कुछ दिखाया जा रहा है, उसकी सच्चाई जुदा भी हो सकती है. फिलहाल की तस्वीर में इतना साफ है कि राजस्थान कांग्रेस के नेताओं के बीच रस्साकशी का खेल लंबा चल सकता है.