बीकानेर. रेतीले धोरों के बीच बसा बीकानेर शहर अपनी सांस्कृतिक विरासत को समेटे हुए इतिहास के पन्नों पर एक संस्कृति के संवाहक के तौर पर जाना जाता है. रसगुल्ले की मिठास हो या भुजिया का तीखापन...ये शहर अपने स्वाद के लिए दुनियाभर में मशहूर है. इसके साथ ही पुरातत्व से जुड़ी समृद्धि ऐतिहासिक इमारतों और हवेलियों को देखने भी यहां हर साल बड़ी तादाद में देशी विदेशी पर्यटक आते हैं. इस सबके बावजूद बीकानेर की एक अलग पहचान है, यह पहचान है पुराने शहर के तकरीबन हर मुहल्ले में रखे तख्त या पाटे.
संस्कृति के संवाहक कहे जाने वाले 'पाटे' हुए सूनसान रात में जागने वाला शहर बीकानेर...
बीकानेर को रात में जागने वाला शहर भी कहा जाता है. शहर के अंदरूनी हिस्सों में रात में भी दिन जैसा माहौल नजर आता है. इसका कारण है शहर के अलग-अलग मोहल्लों और प्रमुख स्थानों पर लगे हुए पाटे यानी बड़े तख्ते. बीकानेर की लोगों के बीच इसे पाटा संस्कृति के तौर पर जाना जाता है. कुर्सी टेबल सोफे पर बैठकर बतियाने की बजाय यहां लकड़ी के बड़े तख्तों पर बैठकर सामूहिक चर्चा करने का प्राचीन चलन रहा है. स्थानीय लोग इन तख्तों को पाटा कहते हैं.
सामूहिक चेतना के प्रतीक हैं पाटे...
कमोबेश बीकानेर के पुराने शहर के अंदरूनी हिस्से में हर मोहल्ले और प्रमुख जगहों पर पाटा मिल जाएगा. कहीं एक, कहीं दो और कहीं-कहीं 4 पाटे एक साथ लगे हुए हैं. पूरे दिन अपने काम व्यवसाय रोजगार से फ्री होकर रात को लोग इन पाटों पर बैठते थे और सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक चर्चाओं का दौर शुरू होता था. जो अलसुबह तक लगातार जारी रहता था. कई जगह ज्योतिषिय चर्चाओं का दौर भी इन पाटों पर सालभर चलता रहता था. होली के मौके पर बीकानेर में आयोजित होने वाली रम्मतों के आयोजन के भी ये पाटे साक्षी रहे हैं.
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पाटों की इन खास बातों का जिक्र केवल बीकानेर तक सीमित नहीं है, बल्कि देश के हर कोने में रहने वाले बीकानेर के लोगों की जेहन में ये पाटे हमेशा रहते हैं. साथ ही बॉलीवुड तक में भी इन पाटों की गूंज है. 1970 में अभिनेता मनोज कुमार की फिल्म यादगार में भी एक पूरा गाना एक तारा बोले बीकानेर के दम्माणी चौक के छतरी वाले पाटों पर फिल्माया गया था.
बीकानेर के द्वारपाल भी हैं ये पाटे...
युवा हरिप्रसाद व्यास कहते हैं कि बीकानेर की साहित्य और सांस्कृतिक विरासत के साथ ही विश्लेषण के दौर और कई चीजों का निर्णायक इतिहास का गवाह है यह पाटा. साहित्यकार हरिशंकर आचार्य कहते हैं कि बीकानेर में इन पाटों को शहर का द्वारपाल कहा जाए तो गलत नहीं है. उन्होंने बताया कि देर रात तक शहर के बड़े बुजुर्ग युवा इन बातों पर बैठकर चर्चा करते हैं और इस दौरान कोई भी अजनबी व्यक्ति शहरी क्षेत्र में प्रवेश करता है तो उसे तुरंत रोक लिया जाता है.
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यही कारण है कि किसी तरह की कोई सामाजिक अपराधिक घटना शहरी क्षेत्र में नहीं होती. युवा मुकेश आचार्य कहते हैं कि आपसी गपशप और गंभीर संवाद का केंद्र इन पाटों को कहा जाए तो गलत नहीं होगा. उन्होंने कहा कि सिर्फ बीकानेर ही नहीं बल्कि देश और दुनिया के किसी भी विषय पर इन पाटों पर चर्चा होती है और एक सार्थक संवाद का जरिया यह पाटा है.
हालांकि कोरोना काल में इंसानी दूरी का असर इन पाटों पर भी पड़ा है. कोरोना के डर से लोग अब इस पाटों पर नहीं बैठ रहे हैं. बरसों की परंपरा को कोरोना ने कुछ वक्त के लिए भले रोक दिया है. लेकिन जब देश-दुनिया को कोरोना के संक्रमण से मुक्ति मिल जाएगी. तब संभव है कि इन्हीं पाटों पर बैठकर कोरोना से लिए गए सबक पर अलसुबह तक लम्बी चर्चाएं हों.
बुजुर्ग दीनदयाल आचार्य कहते हैं कि शहर की सांस्कृतिक त्योहारी विरासत को आगे बढ़ाने में इन बातों का खास महत्व है. वो कहते हैं कि बीकानेर में होने वाली अमर सिंह राठौड़ की रम्मत, आचार्य चौक के पाटे पर पिछले 85 वर्षों से हो रही है और शहर के बढ़ने और सांस्कृतिक के पोषण के लिए यह पाटे बड़े गवाह है. हालांकि बीकानेर मस्त मौला शहर माना जाता है और यहां के लोग भी संतोषी कहे जाते हैं. इसी के साथ कवि प्रदीप की पंक्तियों को गुनगुनाते हुए वे कहते हैं कि
'सुख-दुख रहते जिसमें में जीवन है वो गांव'
'भले ही दिन आते जगत में बुरे भी दिन आते'
'कड़वे मीठे फल कर्म के यहां सभी पाते'
'कभी सीधे कभी उल्टे पड़ते अजब समय के पांव'
कभी धूप कभी छांव