भरतपुर. साल भर में सिर्फ 3 महीने का सीजन ही कुम्हारों के लिए होता है और उसी में की गई मेहनत से पूरे साल भर के लिए परिवार के पालन- पोषण का इंतजाम करना होता है, लेकिन लोगों में बढ़े फ्रिज के चलन ने कुम्हारों का पूरा व्यवसाय पहले ही चौपट कर दिया है. बाकी रही कसर कोरोना संक्रमण ने पूरी कर दी है. बीमारी के इस दौर में जहां कुम्हारों को आसानी से मिट्टी नहीं मिल रही है, वहीं धधकती भट्टी में तपा कर बनाए गए इन मटकों को अब खरीदने वाले भी ना के बराबर रह गए हैं. यही वजह है कि अब प्रजापत समाज की नई पीढ़ी भी अब अपने पुश्तैनी धंधे मिट्टी के काम से मुंह मोड़ने लगी है. ईटीवी भारत ने ऐसे ही कुम्हारों से मिलकर उनके संघर्ष और हकीकत की जानकारी जुटाई है.
संक्रमण में 20 किमी दूर से मिल रही महंगी मिट्टी-
संतोषी प्रजापत ने बताया कि आधुनिकता की दौड़ में लोग मिट्टी के मटके का पानी पीने के बजाय अब फ्रिज का पानी पीना पसंद करते हैं, लेकिन इस बार तो कोरोना संक्रमण के चलते आस-पास के गांवों में मटके बनाने के लिए मिट्टी नहीं मिलती. ऐसे में करीब 20 किमी दूर से महंगे दाम में मुश्किल से मिट्टी (एक ट्रॉली मिट्टी 5 हजार रुपए में) मिल पाई है. कुछ मिट्टी के मटके भी बनाये हैं लेकिन इक्का- दुक्का खरीदार ही मटका लेने आये हैं. भंवर प्रजापत ने बताया कि समय-समय पर बरसात होने की वजह से भी मटका बनाने का काम बाधित होता रहा है. बरसात और खराब मौसम में ना तो मटका बने और ना ही पकाने के लिए भट्टी जली.
शुभ कार्य में भी मिट्टी के बर्तनों का इस्तेमाल-
घटाभंवर प्रजापत ने बताया कि पहले दीपावली के अवसर पर मिट्टी के दीपक काफी संख्या में लोग खरीदते थे. साथ ही शादी के अवसर पर मंडप के चारों कोनों पर सजाने के लिए 4-4 मटकी (चोंरी) खरीदकर ले जाते थे, लेकिन अब मिट्टी के दीपक का स्थान मोमबत्ती ने और मिट्टी के मटका का स्थान स्टील के बर्तनों ने ले लिया है. ऐसे में मिट्टी के बर्तनों की मांग पूरी तरह से घट गई है.