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मिट्टी के काम से अच्छी मजदूरी!...कोरोना के फेर में घटा 'देसी फ्रिज' मटका, नई पीढ़ी ने भी पुश्तैनी धंधे से हाथ झटका

एक समय में मट्टी के मटके का चलन था लेकिन आज के समय में लोगों ने मटकी की जगह फ्रिजों को दे दी है. जिसके कारण कुम्हारों पर रोटी का संकट भी मंडराने लगा है. गर्मी में मटके बना कर कुम्हार अपने पूरे साल के लिए खाने का इंतजाम करते थे. लेकिन अब ना ही मटके का व्यवसाय कुम्हारों के लिए ना के बराबर हो गया है. ऊपर से बची कुची कसर कोरोना ने भी पूरी कर दी. कोरोना काल में कोई भी व्यक्ति मटकों को पूछ तक नहीं रहा है.

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कोरोना के कारण कुम्हारों का मटके का कारोबार हुआ बंद

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Published : May 31, 2020, 12:48 PM IST

भरतपुर. साल भर में सिर्फ 3 महीने का सीजन ही कुम्हारों के लिए होता है और उसी में की गई मेहनत से पूरे साल भर के लिए परिवार के पालन- पोषण का इंतजाम करना होता है, लेकिन लोगों में बढ़े फ्रिज के चलन ने कुम्हारों का पूरा व्यवसाय पहले ही चौपट कर दिया है. बाकी रही कसर कोरोना संक्रमण ने पूरी कर दी है. बीमारी के इस दौर में जहां कुम्हारों को आसानी से मिट्टी नहीं मिल रही है, वहीं धधकती भट्टी में तपा कर बनाए गए इन मटकों को अब खरीदने वाले भी ना के बराबर रह गए हैं. यही वजह है कि अब प्रजापत समाज की नई पीढ़ी भी अब अपने पुश्तैनी धंधे मिट्टी के काम से मुंह मोड़ने लगी है. ईटीवी भारत ने ऐसे ही कुम्हारों से मिलकर उनके संघर्ष और हकीकत की जानकारी जुटाई है.

कोरोना के कारण कुम्हारों का मटके का कारोबार हुआ बंद

संक्रमण में 20 किमी दूर से मिल रही महंगी मिट्टी-

संतोषी प्रजापत ने बताया कि आधुनिकता की दौड़ में लोग मिट्टी के मटके का पानी पीने के बजाय अब फ्रिज का पानी पीना पसंद करते हैं, लेकिन इस बार तो कोरोना संक्रमण के चलते आस-पास के गांवों में मटके बनाने के लिए मिट्टी नहीं मिलती. ऐसे में करीब 20 किमी दूर से महंगे दाम में मुश्किल से मिट्टी (एक ट्रॉली मिट्टी 5 हजार रुपए में) मिल पाई है. कुछ मिट्टी के मटके भी बनाये हैं लेकिन इक्का- दुक्का खरीदार ही मटका लेने आये हैं. भंवर प्रजापत ने बताया कि समय-समय पर बरसात होने की वजह से भी मटका बनाने का काम बाधित होता रहा है. बरसात और खराब मौसम में ना तो मटका बने और ना ही पकाने के लिए भट्टी जली.

नई पीढ़ी भी नहीं देती मटके बनाने में ध्यान

शुभ कार्य में भी मिट्टी के बर्तनों का इस्तेमाल-

घटाभंवर प्रजापत ने बताया कि पहले दीपावली के अवसर पर मिट्टी के दीपक काफी संख्या में लोग खरीदते थे. साथ ही शादी के अवसर पर मंडप के चारों कोनों पर सजाने के लिए 4-4 मटकी (चोंरी) खरीदकर ले जाते थे, लेकिन अब मिट्टी के दीपक का स्थान मोमबत्ती ने और मिट्टी के मटका का स्थान स्टील के बर्तनों ने ले लिया है. ऐसे में मिट्टी के बर्तनों की मांग पूरी तरह से घट गई है.

मिट्टी के मटके बनाने वाला परिवार

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अगली पीढ़ी नहीं लेती पुश्तैनी काम में रुचि-

भंवर और संतोषी प्रजापत ने बताया कि घर के युवा मिट्टी के काम में कोई रुचि नहीं लेते. अगर यही हालात रहा तो आने वाले समय में मटका बनाने का काम इसी पीढ़ी तक सिमट कर रह जायेगा. युवा पीढ़ी मटका बनाने के बजाय दूसरे काम करना पसंद कर रही है.

युवा पीढ़ी ने इसलिए मुंह मोड़ा-

हुकुम और भगवान सिंह प्रजापत ने बताया कि उनके घर में पुश्तों से मटका बनाने का काम होता है, लेकिन आज के इस दौर में मटकों के व्यवसाय में कोई खास आमदनी नहीं होती. बच्चों की पढ़ाई-लिखाई और पालन-पोषण के लिए मटकों के व्यवसाय से काम नहीं चलता, इसलिए घर चलाने के लिए मेहनत मजदूरी और अन्य रोजगार का सहारा लेना पड़ रहा है.

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