अजमेर.दीपावली खुशियों का त्योहार है. इस पावन पर्व पर घर को रोशनी से रोशन करने की परंपरा रही है. सदियों से घर को रोशन करने के लिए कुम्हार के बनाये मिट्टी के दीये जलाए जाते रहे है. मगर आधुनिकता की चकाचौंध में हम हमारी मिट्टी से दूर होते जा रहे है. यानी हमारी परंपराओं को भूलते जा रहें. बेशक मिट्टी के दीयो में इलेक्ट्रॉनिक लड़ियों के मुकाबले रोशनी कम है, लेकिन इन दीयों से सदियों पुरानी परम्पराओं का आत्मीय अनुभव होता है. जो बनावटी रोशनी से नहीं मिल सकता. आज भी कई लोग हैं जो मिट्टी के दीये जलाकर दीपावली की खुशियां मनाते हैं.
चाइनीज सामान ने छीना कुम्भकारों का रोजगार
क्या आप जानते है कि इन मिट्टी के दीयों के लिए कितनी मेहनत की जरूरत है. मिट्टी को रौंदकर उसको आकार देने में जो मेहनत लगती है उसका अंदाजा लगाना भी बहुत मुश्किल है. बढ़ती आधुनिकता की वजह से कई परिवार है. जिन्होंने अपना पुश्तैनी काम ही छोड़ दिया है. अजमेर में चंद परिवार बच्चे हैं, जो आज भी मिट्टी के दीये बनाते है. फूलचंद प्रजापत का परिवार पीढ़ी दर पीढ़ी मिट्टी के दिए और बर्तन बनाता आया है.
फूल चंद बताते हैं कि मिट्टी के दीये बनाने में एक व्यक्ति को नहीं बल्कि पूरे परिवार को जुटना पड़ता है. उन्होंने बताया कि चाइनीज आइटम की वजह से उनका रोजगार छीन गया है. वहीं रही सही कसर गुजरात से आने वाले मिट्टी और पीओपी से निर्मित डिजाइनर दीयों ने पूरी कर दी. इस कारण मिट्टी के दीये कम बिकते है. इसलिए नई पीढ़ी इस काम में आना ही नहीं चाहती. वहीं फूल चंद प्रजापत बताते हैं कि राजस्थान सरकार ने मिट्टी कला बोर्ड बनाने की घोषणा की थी. लेकिन उसका कोई फायदा नहीं मिल रहा है. जबकि मध्य प्रदेश सरकार कुम्हारों की आजीविका के लिए बहुत कुछ कर रही है.
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