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अजमेर का अजगंधेश्वर शिवालयः दैत्य वश्कली का वध करने के लिए शिव ने लिया था बकरे का रूप, ब्रह्मा के निवेदन पर शिवलिंग में हुए स्थापित

सावन के अंतिम सोमवार पर हम आपको दर्शन करवाते हैं अजमेर के अजयसर की पहाड़ियों के बीच बसे अद्भुत शिवालय का. अद्भुत इसलिए क्योंकि भगवान शिव ने दैत्य वश्कली का वध करने के लिए अजहा यानी बकरे का रूप धारण किया. जिसके बाद जगत पिता ब्रह्मा के कहने कर अजगंधेश्वर नाम से शिवलिंग के रूप में स्थापित हो गए. इस मंदिर की और इस शिवलिंग की क्या मान्यताएं है जानने के लिए पढ़िए ये खास खबर...

Ajmer Ajgandheshwar Shiva Temple, अजमेर का अजगंधेश्वर शिवालय
अजगंधेश्वर शिवालय

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Published : Aug 16, 2021, 2:20 PM IST

अजमेर. पुष्कर आरण्य क्षेत्र में स्थित अजयसर की पहाड़ियों के बीच जंगल में अद्भुत प्राचीन शिवालय है. पुराणों के अनुसार भगवान शिव ने एक दैत्य का वध करने के लिए यहां बकरे का रूप लिया था. दैत्य का वध करने के बाद जगतपिता ब्रह्मा के आग्रह पर भगवान शिव वहीं पर अजगंधेश्वर नाम से शिवलिंग के रूप में स्थापित हो गए. ऐसा माना जाता है कि प्रातः स्नान करने के बाद शिवलिंग पर जल चढ़ाने के बाद श्रद्धा से कोई भी व्यक्ति शिवलिंग को अपने दोनों हाथों से रगड़ता है तो उसके हाथों में अजहा यानी बकरे की गंध आने लगती है.

दैत्य वश्कली का वध करने के लिए शिव ने धारण किया बकरे का रूप

परिवार संग साल में एक बार आते हैं भोलेनाथ

श्रावण मास भगवान शिव को अंत्यत प्रिय है. यही वजह है कि श्रावण मास में शिव भक्त अपने आराध्य शिव शंकर की पूजा अर्चना करते है. यूं तो संसार में भगवान भोलेनाथ के कई पवित्र स्थान है. इनमें सबसे परमधाम शिव का कैलाश मानसरोवर है. जहां महादेव स्वयं अपनी पत्नी पार्वती पुत्र गणेश और कार्तिकेय के साथ वर्ष में 1 दिन कैलाश छोड़कर जरूर आते है.

दैत्य का वध करने के लिए बने अजहा

अजमेर में जगत पिता ब्रह्मा की नगरी पुष्कर के आरण्य क्षेत्र अजयसर की पहाड़ों के बीच जंगल में अजगंधेश्वर मंदिर है. इस मंदिर में उपस्थित शिवलिंग की स्थापना स्वंय जगतपिता ब्रह्मा ने की थी. पुराणों के अनुसार इंद्र के तप से प्रसन्न होकर स्वर्ग पर अधिकार जमाकर बैठे दैत्य वश्कली का भगवान शिव ने यही पर संहार किया था. दैत्य वश्कली का संहार करने के लिए भगवान भोलेनाथ ने विशाल अजहा (बकरे) का रूप धरा था.

पुष्कर के पंडित रवि शर्मा बताते है कि पदम् पुराण में अजगंधेश्वर महादेव का उल्लेख है. उन्होंने बताया कि जगतपिता ब्रह्मा की नगरी पुष्कर की अध्यात्मिक शक्ति से प्रभावित होकर वश्कली नाम के दैत्य पुष्कर आरण्य में निवास कर 10 हजार सालों तक ब्रह्मदेव को प्रसन्न करने के लिए घोर तप किया था. तब के शुरुआती 2 हजार साल में 6 दिन में एक बार दैत्य वश्कली भोजन करता था. अगले 2 साल उसने इसी तरह से 6 दिन में एक बार पत्ते खाए, बाद में अगले 2 हजार साल सूखे फल खाएं और अगले 2 हजार साल उसने केवल जल पिया. आखरी 2 हजार सालों में उसने अपने शरीर को इतना साध लिया कि वह केवल हवा पर निर्भर रहकर तप करता रहा.

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जगत पिता ब्रह्मा ने दैत्य वश्कली की तपस्या से प्रसन्न होकर उसे दर्शन दिए. दैत्य वश्कली ने ब्रह्म देव से स्वर्ग पर आधिपत्य और अस्त्र, शस्त्र, देव दानव किसी से भी उसकी मृत्यु नहीं होने का वरदान हासिल कर लिया. ब्रह्मदेव के वरदान के कारण इंद्र को स्वर्ग से हाथ धोना पड़ा. वहीं समस्त देवताओं को स्वर्ग त्यागना पड़ा. पंडित रवि शर्मा ने बताया कि स्वर्ग पर आधिपत्य रखने के बावजूद दैत्य वश्कली प्रतिदिन स्वर्ग से पुष्कर आता और पवित्र सरोवर में स्नान करने के बाद जगतपिता ब्रह्मा की पूजा अर्चना करता था.

इंद्र ने की शिव की तपस्या

स्वर्ग त्यागने के बाद इंद्र ने भी पुष्कर में आकर 10 सालों तक भगवान शिव की तपस्या की. शिव ने प्रसन्न होकर इंद्र को दर्शन दिए तब शिव ने स्वर्ग लोक और देवताओं पर आए संकट को हरने के लिए सहायता मांगी. तब भगवान शिव शंकर ने इंद्र को सहायता करने का वचन दिया. भगवान शिव ने ब्रह्मदेव के वरदान का सम्मान रखते हुए दैत्य वश्कली का वध करने के लिए विशाल अजहा (बकरे ) का रूप धारण किया.

मंदिर के चारों ओर ऐसे कई शिवलिंग स्थापित हैं

विशाल बकरे को देखकर दैत्य प्रवृत्ति वश्कली ने बकरे को मार कर उसका मास भक्षण करने का विचार करते हुए बकरे पर हमला बोल दिया. पहाड़ियों से घिरा यह वहीं स्थान है जहां बकरे के रूप में महादेव ने दैत्य वश्कली का वध सिंग के प्रहार से किया था. इस दौरान ब्रह्मदेव ने भगवान शिव को यहीं पर स्थापित होने का आग्रह किया. शिव ने जगतपिता ब्रह्मा के वाक्यों को पूरा करते हुए साल में एक बार यहां पूरे परिवार के साथ रहने का आग्रह स्वीकार कर लिया.

मान्यता अनुसार कार्तिक शुक्ल की चतुर्दशी पर भगवान शिव शंकर अपने पूरे परिवार के साथ यहां विराजते हैं यह भी माना जाता है कि शिव परिवार की मौजूदगी में इस दिन अजह की गंध नहीं आती है.

राजा अजय पाल चौहान ने की अजमेर की स्थापना

चारों और पहाड़ी हरियाली झरने का मनोरम दृश्य इस स्थान को और भी सुंदर बना देता है. अजगंधेश्वर के स्थान जुड़ाव अजमेर के स्थापत्य से भी है. अजमेर में चौहान वंश के प्रतापी राजा अजय पाल चौहान का बाल्यकाल अजगंधेश्वर मंदिर और उसके आसपास के जंगलों में गुजरा था. वह ग्रामीणों के साथ बकरियां भी चराते थे. अजमेर की स्थापना अजय पाल ने की थी, लेकिन भौतिक सुखों में उनका मन ज्यादा नहीं लगता था. यही वजह थी कि कुछ साल शासन करने के बाद राज्य का कार्यभार अपने उत्तराधिकारी को सौंपकर अजय पाल ने वनवास ले लिया.

मां गंगा की थी अजय पाल पर कृपा

अजपाल ने अजगंधेश्वर महादेव की खूब सेवा की और यहां रहते हुए उन्होंने साधना कर कई सिद्धियां प्राप्त कर ली. किवदंती है कि अजय पाल अपनी सिद्धियों से प्रतिदिन हरिद्वार से गंगाजल लेकर आते थे और शिवलिंग पर अर्पित करते थे. महादेव के प्रति उनकी श्रद्धा और भक्ति को देखते हुए मां गंगा ने प्रसन्न होकर अजय पाल को कहा कि तुम्हे जल लेने के लिए यहां तक आने की आवश्यकता नही है. मैं स्वंय उस पवित्र स्थान पर प्रकट होऊंगी.

मां गंगा अपने कहे अनुसार प्रकट हुई. मंदिर के ठीक पीछे नीचे की ओर एक बावड़ी है जिसे गंगा बावड़ी के नाम से जाना जाता है. अजय पाल को सिद्ध पुरुष के रूप में पूजा जाता है. अजय पाल का मंदिर समिति है. आज भी अजमेर के ग्रामीण क्षेत्रों में अजय पाल के गीत गाए जाते हैं.

ब्रह्मा के निवेदन पर शिवलिंग में हुए स्थापित

मान्यता है कि बाबा अजयपाल के दर्शन करने आने वाले लोगों को उनके कष्टों से मुक्ति मिलती है. पुजारी भवर नाथ बताते हैं कि बाबा अजय पाल तात्कालिक है. मंदिर के आसपास के क्षेत्र में यदि कोई चोरी की नियत से आता है या फिर मांस मदिरा का भक्षण करता है तो बाबा अजय पाल उसे तत्काल दंड भी देते हैं. अजय पाल बाबा के चमत्कारों के कारण ही यह स्थान अजय पाल के नाम से प्रसिद्ध हो गया है.

विकास से अछूता

अजगंधेश्वर महादेव का मंदिर और अजयपाल का मंदिर समीप ही है. इनका निर्माण समय-समय पर शिव भक्तों ने करवाया था. मंदिर की स्थापत्यकला बेजोड़ है. बड़े पत्थरों को जमाकर लॉकिंग सिस्टम से मंदिर की नींव और कंगूरा बनाया गया है जो सदियों बाद भी मंदिर मजबूती से खड़ा है. मंदिर के चारों और आकर्षक कलाकृतियां उकेरी गई है. अजगंधेश्वर महादेव मंदिर के चारों ओर चार शिवलिंग स्थापित है.

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मंदिर का धार्मिक और पौराणिक महत्व होने के बावजूद भी यह क्षेत्र विकास से अछूता रहा है. मंदिर में आजादी के बाद अभी तक बिजली भी नहीं पहुंची है. इसके पुरातत्व महत्व को देखते हुए केंद्रीय पुरातत्व विभाग इसका संरक्षण करता है, लेकिन मंदिर के बाहर लगे इस बोर्ड को देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस बोर्ड को लगाने के बाद कभी पुरातत्व विभाग के अधिकारियों ने यहां आकर कभी सुध नहीं ली. अनुपम प्राकृतिक सौंदर्य के कारण यह स्थान पिकनिक स्पॉट बन चुका है.

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