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SPECIAL : लोक कलाओं का फीका पड़ता रंग, चंग की थाप होती गुम - वाद्य यंत्र चंग

आजकल के जमाने में मॉडर्न संगीत के सामने लोक कलाओं का रंग फीका पड़ने लगा है. एक जमाना था जब चंग की थाप होली की पहचान हुआ करती थी, लेकिन आजकल चंग बनाने वाले निर्माता इसकी खोई हुई पहचान को लेकर काफी दुखी है.

अजमेर की खबर, AJMER NEWS
चंग की थाप होती गुम

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Published : Mar 21, 2021, 2:15 PM IST

अजमेर. राजस्थान का यह प्रसिद्ध लोकगीत फाल्गुन के महीने में होली के महा उत्सव में चंग की थाप का महत्व बयान करता है. चंग का नाम आते ही मन में होली के माहौल की तस्वीरें खुद ब खुद उभरने लगती है. ऐसा लगता है मानो चंग का होली के साथ चोली दामन का साथ हो, लेकिन होली के इस हमसफर कि थाप आजकल कहीं खो सी गई है.

मॉडर्न संगीत के सामने लोक कलाओं का रंग फीका पड़ने लगा

जमाने ने बदले जीवन के रंग:

ऐसा इसलिए है क्योंकि आजकल के जमाने में मॉडर्न संगीत के सामने लोक कलाओं का रंग फीका पड़ने लगा है. एक जमाना था जब चंग की थाप होली की पहचान हुआ करती थी, लेकिन आजकल चंग बनाने वाले निर्माता इसकी खोई हुई पहचान को लेकर काफी दुखी है. चंग के बारे में हमने लोगों से बात की तो सांस्कृतिक प्रकोष्ठ अध्यक्ष गोपाल बंजारा ने बताया की चंग की थाप आज भी ग्रामीण परिवेश में सुनने को मिल जाती है. ग्रामीण परिवेश में इसकी अपनी अलग पहचान है.

चंग निर्माताओं में छाई मायूसी

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वहीं, शहरी परिवेश में आजकल चंग अपनी पहचान खो रहा है. एक जमाना था जब गांव देहात के लोग टोलियां बनाकर अजमेर के नया बाजार क्षेत्र से चंग खरीदने के लिए आते थे और गाते बजाते गुलाल उड़ाते वापस अपने गांव जाते थे. उनके इस अल्हड़ अंदाज को देखने के लिए शहर में भी लोगों की भीड़ जमा हो जाती है, लेकिन आज वक्त बदल चुका है लोगों का अंदाज बदल चुका है.

दुकानों पर सजे अनेक वाद्य यंत्र

ग्रामीण इलाकों में ही है चंग का रुझान:

जब हमने वाद्य यंत्र बनाने वाले निर्माता राकेश कुमार पवार से बातचीत की तो उन्होंने बताया कि पहले चंग की मांग बहुत ज्यादा हुआ करती थी, लेकिन कुछ समय से यह सिर्फ ग्रामीण परिवेश तक ही सीमित हो गई. शहरी क्षेत्रों में चंग को लेकर इतना रुझान नहीं है.

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राजस्थान के मारवाड़ में जोधपुर पाली आदि इलाकों में आज भी चंग पहले की ही तरह लोकप्रिय है. इसीलिए इन क्षेत्रों में चंग की खरीद होली के त्योहार के समय जोर शोर से की जाती है. वहीं, राजस्थान के दूसरे इलाकों में अब इसकी खरीद फीकी पड़ने लगी है और रही सही कसर कोरोना ने पूरी कर दी. अब लोग कोरोना की वजह से भी चंग की खरीद करने के लिए नहीं आ रही है.

कोरोना की पेंटिंग के साथ चंग

यदि चंग को ठीक ढंग से बनाया जाए तो 1 दिन में तीन से चार जंग बनकर तैयार हो जाते हैं. ऐसे में इनकी कीमत भी इनकी गुणवत्ता के आधार पर बढ़ने लगती है. इस बार जब कोरोना अपने चरम पर है तो बाय-बाय कोरोना की थीम पर भी चंग का निर्माण किया गया है.

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चंग निर्माताओं को अभी भी यही उम्मीद है की चंग की थाप एक बार फिर से होली पर लोकगीतों की खूबसूरती में चार चांद लगाएगी. इसकी थाप एक बार फिर अपनी मधुर स्वर लहरी के साथ गूंजेगी. हम सभी इसी दिन का इंतजार कर रहे हैं जब हमारी आने वाली पीढ़ी इस खूबसूरत और मधुर वाद्य यंत्र के जादू को अनुभव कर पाएगी.

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