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Special : वास्तुकला की दृष्टि से भी बेजोड़ है ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह

ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती पर हर धर्म के लोग का विश्वास है. अजमेर शरीफ में हजरत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की मजार की जियारत कर फातिहा पढ़ने की चादर हर ख्वाजा के चाहने वाले की होती है. तारागढ़ पहाड़ी की तलहटी में स्थित दरगाह शरीफ वास्तुकला की दृष्टि से भी बेजोड़ है. एक विशेष रिपोर्ट.

Special report, अजमेर दरगाह, ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती
वास्तुकला की दृष्टि से भी बेजोड़ है अजमेर दरगाह

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Published : Mar 1, 2020, 7:23 PM IST

Updated : Mar 1, 2020, 7:36 PM IST

अजमेर.'दरगाह अजमेर शरीफ' एक ऐसा पाक नाम है, जिसे सिर्फ सुनने से ही रूहानी सुकून मिल जाता है. तारागढ़ पहाड़ी की तलहटी में स्थित दरगाह शरीफ वास्तुकला की दृष्टि से भी बेजोड़ है. यहां ईरानी और हिंदुस्तानी वास्तुकला का सुंदर संगम दिखता है. दरगाह का प्रवेश द्वार और गोमेद बेहद खूबसूरत है. माना जाता है कि इसका कुछ भाग अकबर और कुछ जांगिड़ ने पूरा कराया था. दरगाह को पक्का करवाने का काम मांडू के सुल्तान गयासुद्दीन खिलजी ने करवाया. दरगाह के अंदर बेहतरीन नक्काशी की गई है.

वास्तुकला की दृष्टि से भी बेजोड़ है अजमेर दरगाह

एक चांदी के कटघरे के अंदर ख्वाजा साहब की मजार है. कटघरा जयपुर के महाराजा राजा जयसिंह ने बनवाया था. दरगाह में एक खूबसूरत महफिल खाना भी है, जहां कव्वाल ख्वाजा की शान में कव्वाली पेश करते हैं. यहां ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की कब्र है, जो साल 1192 में सुल्तान साबुद्दीन के साथ भारत आए और अजमेर में ही बस गए.

उनके पास कई चमत्कारी शक्तियां थी, जिस वजह से उनके नाम पर आज भी दरगाह में लोग दूर-दूर से आते हैं. यहां आने वाले लोगों की हर मुराद पूरी होती है. ख्वाजा साहिब की यह दरगाह देखने में भी बहुत सुंदर है. आइए जानिए इसकी खूबसूरती के बारे में जिसको देखे बिना रह नहीं पाएंगे.

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निजाम गेट

अजमेर शहर ऊंची-ऊंची पहाड़ियों के बीच बसा है और ये दरगाह इस शहर के बीच स्थित है. ख्वाजा पीर की इस दरगाह के प्रवेश में चारों तरफ दरवाजे हैं, जिनमें से सबसे ज्यादा सुंदर और आकर्षक दरवाजा मुख्य बाजार की ओर है, जो निजाम गेट के नाम से मशहूर है. ये दरवाजा साल 1912 में बनना शुरू हुआ और इसे बनने में 3 साल लगे. इसकी ऊंचाई 70 फीट और चौड़ाई 24 फीट है.

दरवाजा नक्कारखाना

ये दरवाजा काफी पुराने तरीके से बना है और इसके ऊपर शाही जमाने का नक्कारखाना है. इस दरवाजे को शाहजहां ने साल 1047 में बनवाया था. इसी कारण ये नक्कारखाना शाहजहानी के नाम से प्रसिद्ध है.

चार यार की मजार

जामा मस्जिद के दक्षिण दीवार के साथ ही एक छोटा-सा दरवाजा है, जो पश्चिम की ओर खुलता है. इस दरवाजे के बाहर काफी बड़ा कब्रिस्तान है. यहां बड़े-बड़े आलिमों, फाजिलों और सूफियों-फकीरों की मजार(कब्र) है. इस कब्रिस्तान में उन चार बुजुर्गों की भी कब्रें हैं, जो हजूर गरीब नवाज के साथ आए थे. इस कारण इसे चार यार भी कहते हैं. यहां हर साल मेला लगता है, जहां लोग दूर-दूर से आते हैं.

अकबरी मस्जिद

अकबरी मस्जिद अकबर के जमाने की यादगार है. शाहजहां सलीमा के जन्म पर बादशाह अकबर के साथ अजमेर आए थे और उन्होंने उस समय इस मस्जिद के निर्माण का आदेश दिया था.

सेहन का चिराग

बुलंद दरवाजे के आगे बढ़ने पर सामने एक गुंबद की तरह सुंदर सी छतरी है. इसमें एक पुराने तरह का पीतल का चिराग रखा है. इसको सेहन का चिराग कहते हैं.

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बड़ी देग

बादशाह अकबर ने ये प्रतिज्ञा की थी कि चितौड़गढ़ से युद्ध जीतने के बाद अजमेर दरगाह में एक बड़ी देग नजर की जाएगी. इसमें 120 मण खाना एक साथ पकाया जा सकता है. बड़ी देग में ख्वाजा साहब की दरगाह पर आने वाले सभी जायरीन नजराना पेश करते हैं.

छोटी देग

बादशाह अकबर के बेटे जहांगीर ने छोटी देग दान किया था. अकबर के बेटे थे, इसलिए उन्होंने अकबर से छोटी देग दान की थी. इस देग में एक बार 60 मण चांवल पक सकते हैं. छोटी देग में हर दिन मीठा खाना बनाया जाता है.

Last Updated : Mar 1, 2020, 7:36 PM IST

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