उज्जैन। बैलगाड़ी पर पूरी गृहस्थी और दोनों भाइयों के कंधे पर बैलगाड़ी का बोझ, जिसे दोनों भाई खींचते ही चले जा रहे हैं. खींचते जा रहे हैं इसे अपनी किस्मत मानकर और खींचते जा रहे हैं इसे अपनी बेबसी, लाचारी और मुकद्दर मानकर. पर इस तस्वीर को देखकर भी पत्थर होते समाज में किसी का दिल नहीं पिघला. ये दोनों भाई अपनी बहन और भाई की अस्थियां विसर्जित करने के लिए क्षिप्रा के घाट पर जा रहे हैं, जिनके इलाज में वो अपना सबकुछ लुटाकर भी अपने भाई-बहन को नहीं बचा पाए, जब कैंसर ने दोनों की जान ले ली तो इनके पास अंतिम संस्कार के लिए पैसे भी नहीं थे, जिसके चलते इन्होंने 18000 में ही अपने दोनों बैल बेच दिए और दोनों भाई बैल के बदले खुद बैलगाड़ी खींचने लगे.
मजबूरी ने दोनों भाइयों को बना दिया 'बैल' तो खुद खींचने लगे बैलगाड़ी
भाई-बहन का अस्थि विसर्जन करने क्षिप्रा घाट पर जा रहे परिवार के दो सदस्य बैल की जगह खुद ही बैलगाड़ी को खींचे जा रहे थे क्योंकि न तो उनके पास बैल बचे थे और न ही बैल खरीदने के लिए पैसे थे.
सांवेर-क्षिप्रा मार्ग पर हतुनिया के पास से बैलगाड़ी पर अपनी गृहस्थी लिए एक परिवार गुजर रहा था, दोनों भाई बैलगाड़ी को खींचे जा रहे थे और परिवार के सदस्य साथ में पैदल चलते जा रहे थे, इस परिवार की दुर्दशा देख एक प्रतिनिधि ने इनसे बात की तो बैलगाड़ी खींच रहे सुनील ने बताया कि वो उज्जैन के पास निनोरा गांव से आ रहा है और अब क्षिप्रा के घाट पर अपने भाई-बहन की अस्थियां विसर्जित करने जा रहा है.
सुनील ने बताया कि दो भाई-बहन की किडनी खराब हो गई थी, उसके बाद उनका बहुत इलाज करवाया, लेकिन उन्हें बचा नहीं सके. उसने अपने दोनों बैलों को 18 हजार में बेच दिया और भाई-बहन का अंतिम संस्कार किया. अब उसके पास न तो बैल हैं और न ही बैल खरीदने के लिए पैसा है, इसलिए बैलगाड़ी में बैलों की जगह दोनों भाई ही बैलगाड़ी को खींच रहे हैं.