शहडोल। कोरोना काल की भयावहता और अचानक लॉकडाउन का वो दौर शायद ही कोई भूल पाए. लॉकडाउन लगने की वजह से बाहर जाकर मजदूरी करने वाले मजदूर अपने घरों की ओर वापस पैदल ही लौटने के लिए मजबूर हुए. किसी को खाना मिल भी रहा था, तो किसी को नहीं मिल रहा था. किसी का बच्चा भूखा था, तो किसी का पूरा परिवार ही भूखा रहा. लेकिन बस एक ही जिद थी कि किसी तरह घर लौटना है. क्योंकि सब कुछ बंद हो चुका था और कोरोना का डर उस दौर में इतना था कि लोग पैसे देने पर भी खाने का सामान नहीं देते थे.
एक ऐसा ही परिवार शहडोल जिले के पड़मनिया खुर्द गांव का रहने वाला है, जो बैगा आदिवासी परिवार हैं. यह परिवार शहडोल जिले से बाहर छत्तीसगढ़ के अंबिकापुर में जाकर ईंट बनाने का काम करते थे. पिछले कई साल से लगातार छह-छह महीने के लिए वह मजदूरी के लिए चले जाते थे. लेकिन लॉकडाउन के दौर में जो उनके साथ बीता है. उसके बाद वो अब अपने गांव को छोड़कर कहीं नहीं जाना चाह रहे हैं. अपनी रोजी रोटी के लिए अपने हुनर को ही अपनी ताकत बना लिया और आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ते हुए अब खुद ही ईंट तैयार कर रहे हैं. सुनिए इन परिवारों की दर्द भरी कहानी ईटीवी भारत की जुबानी...
- बैगा आदिवासी मजदूरों की नई शुरुआत
जिला मुख्यालय से लगभग 10 से 15 किलोमीटर दूर है पर पड़मनिया खुर्द ग्राम पंचायत. यहां पर कुछ बैगा आदिवासी परिवार रहते हैं, जो पहले अपने घर गुजारा करने के लिए महीनों के लिए छत्तीसगढ़ के अंबिकापुर चले जाते थे. वहां पर ईंट बनाने का काम करते थे. लेकिन कोरोनावायरस और लॉकडाउन के भयावह दौर में जो उनके साथ बीती है, जिस बुरे दौर को उन्होंने देखा है उसके बाद अब उन्होंने बाहर ना जाने की कसम खा ली है. यहां कुछ बैगा आदिवासी परिवार एक साथ मिलकर अब आत्मनिर्भरता की ओर कदम बढ़ा रहे है. यह परिवार जो ईंट बनाने का हुनर उनके पास था, उसे अब उन्होंने अपनी ताकत बनाकर अपना खुद का एक छोटा सा काम शुरू किया है. अब यह बैगा आदिवासी परिवार खुद ही ईंट बनाने का काम कर रहा है. अपना काम करके ये परिवार अब काफी खुश है. उनका कहना है कि अब कुछ भी हो जाए वह काम करने के लिए बाहर नहीं जाएंगे.
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- अब मैं खुद का काम करूंगा, बाहर नहीं जाऊंगा