शहडोल। शहडोल जिला आदिवासी बाहुल्य जिला है और ये अपने आप में अनूठा है. जिले में आदिवासी परंपरा आज भी निभाई जा रही है. दीपावली का दूसरा दिन पड़वा का दिन कहलाता है और इस दिन गांव में मैदान पर सुबह-सुबह ग्रामीण इकट्ठे होने लगते हैं वजह है मौनी व्रत का आयोजन होता है. हालांकि बदलते वक्त के साथ अब ये विलुप्ति की कगार पर है. लेकिन शहडोल के कई गांव में इस मौनी व्रत का आयोजन आज भी होता है.
विलुप्ति की कगार पर आदिवासी परंपरा! आसान नहीं ये अनोखा व्रत, जानकर आप भी रह जाएंगे हैरान
शहडोल जिले में आदिवासी परंपरा आज भी निभाई जा रही है. दीपावली का दूसरा दिन पड़वा का दिन कहलाता है और इस दिन गांव में मैदान पर सुबह-सुबह ग्रामीण इकट्ठे होने लगते हैं वजह है मौनी व्रत का आयोजन होता है. हालांकि बदलते वक्त के साथ अब ये विलुप्ति की कगार पर है. लेकिन शहडोल के कई गांव में इस मौनी व्रत का आयोजन आज भी होता है.
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अनोखी परंपरा मौनी व्रत
मौनी व्रत अपने आप में अनोखी परंपरा है, इस व्रत को आदिवासी समाज के लोग करते हैं उसमें गोंड़ समाज के भी हो सकते हैं, कोल समाज के लोग भी हो सकते हैं और आदिवासी समाज के बड़े-बुजुर्गों की मानें तो लक्ष्मी जी की पूजा है और भी कोई भी इसमें शामिल हो सकते हैं. मौनी व्रत में दीपावली के दूसरे दिन युवा वर्ग मौन व्रत रखता है और सुबह-सुबह बड़े धूमधाम के साथ जहां पर मवेशियों को इकट्ठा किया जाता है, वहीं पर साज-सज्जा करके लक्ष्मी जी की पूजा की जाती है. ये पूजा भी अनोखे तरीके की होती है और पूजा करने के बाद सभी मौनी व्रत वाले दिनभर के लिए मवेशी चराने के लिए निकल जाते हैं और फिर शाम को उसी तरह की पूजा एक बार फिर से होती है और फिर अपने-अपने घरों में जाकर लोग व्रत तोड़ते हैं. इस व्रत में सुबह-शाम लोग लक्ष्मी जी की पूजा करते हैं. पूजा करने के अलावा एक छोटी बछिया होती है, जिसके पैरों के नीचे से पूजा करते हुए सात बार परिक्रमा करनी पड़ती है. व्रत करने वाला हर युवा इस परिक्रमा को करता है. सुबह भी सात बार परिक्रमा होती है और फिर शाम को भी सात बार परिक्रमा की जाती है.
जोड़े में रहते हैं व्रती
गांव के बड़े-बुजुर्गों की मानें तो यह व्रत जोड़े में किया जाता है. मतलब दो युवा एक साथ जोड़े में व्रत को करेंगे और इसका भी एक बहुत बड़ा महत्व होता है, क्योंकि वह दिन भर साथ में रहेंगे साथ में पूजा करेंगे और साथ में ही व्रत तोड़ेंगे. इस व्रत को कोई 5 साल, कोई 7 साल, कोई 11 साल करता है. इस व्रत को अविवाहित युवा ही करते हैं.
बिना हाथ लगाएं खाने की परंपरा
जब मौनी व्रत पूरा करने के बाद शाम को यह जोड़ा भोजन करता है तो दोनों एक दूसरे के घर जाते हैं और एक ही थाली में रखकर मवेशी की तरह हाथ-पैर बांधकर थाली में मुंह लगाकर खाना खाते हैं. दोनों एक ही थाली में खाते हैं और इसके बाद फिर वह अपने दूसरे जोड़े के घर भी जाते हैं और वहां भी इसी तरह खाते हैं, इस तरह से इनका व्रत पूरा होता है जो अपने आप में बहुत कठिन होता है.
दिनभर इशारों में बात, जंगल में वास
जब मौनी व्रत रहते हैं तो सुबह-सुबह पूजा करने के बाद जो भी मौन व्रत रहता है वह सीधे जंगल की ओर मवेशियों को लेकर चला जाता है और दिन भर यह लोग जंगलों में ही रहते हैं और इस दौरान इशारों में बात करते हैं या फिर सीटी बजा कर बात करते हैं या फिर बांसुरी बजा कर. लेकिन मुंह से कोई भी बात नहीं करता है और पूरे दिन जंगल में रहते हैं और शाम को जब मवेशियों के घर जाने का समय होता है तभी वह लेकर घर की ओर आते हैं और फिर पूजा करते हैं.
महिलाओं के परिधान में भी आते हैं नज़र
वैसे तो इस व्रत को अगर पूरे तरीके से किया जाए तो इसमें महिलाओं के परिधान में रहना आवश्यक होता है, युवा पुरुष महिलाओं के परिधान पहन कर इस व्रत को अविवाहित ही करते हैं. इसमें महिलाओं की तरह साड़ी पहनना, उन्हीं की तरह मेकअप करना भी शामिल रहता है. हालांकि आज के समय में अब यह भी बदल गया है और लोग नए पेंट-शर्ट पहन कर ही यह व्रत करने लगे हैं. बहुत कम लोग ही नजर आते हैं जो महिलाओं के परिधान में पूरी तरह से इस व्रत इस परंपरा का निर्वहन करते हैं.