भोपाल। अंतिम सात चुनाव की बात करें तो लगातार भाजपा या भाजपा समर्थक विधायक ही काबिज रहे हैं. हिंदुत्व विचारधारा वाला जो निर्दलीय प्रत्याशी जीता, उसे भाजपा ने अपनाकर अपना प्रत्याशी बना दिया. अंतिम दो बार से ऐस ही ट्रेंड देखने को मिल रहा है. पहले रमेश सक्सेना को निर्दलीय के रूप में जीतने के बाद प्रत्याशी बनाया और फिर दूसरी बार सुदेश राय के निर्दलीय जीतने पर टिकट दे दी. दोनों ही बार दांव सही बैठा. हालांकि इस बार परिस्थितियां थोड़ी अलग है. क्षेत्रीय विधायक हिंदुत्व का चेहरा कम और व्यापारी अधिक माने जाते हैं. इनकी जनता से दूरी अब लोगों को खटकने लगी है. आबादी बढ़ने के साथ बेरोजगारी की समस्या बहुत विकराल हो चुकी है. ऐसे में यदि कांग्रेस ठीक चेहरा मैदान में उतारती है तो भाजपा के लिए सीट बचाना मुश्किल हो जाएगा, क्योंकि अब कांग्रेस भी हिंदुत्व की राह पर चल पड़ी है.
सीहोर विधानसभा सीट का इतिहास: कभी भोपाल रियासत की राजधानी रहा सीहोर शहर वर्ष 1956 के बाद एक विधानसभा बन गया. पहली बार जब 1957 में विधानसभा चुनाव हुए तो यहां से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के उमराव सिंह विधायक बनकर सदन तक पहुंचे. नवाब के प्रभाव वाले इस इलाके में दो बार मुस्लिम समाज से भी विधायक बने. पहली बार 1962 में कांग्रेस ने इनायतुल्ला खान को टिकट दिया और वे जीत गए. इस दौरान इस विधानसभा में हिंदुत्व का माहौल बनना शुरू हो गया था. इसीलिए तीसरे ही चुनाव जो कि वर्ष 1967 में हुआ था, में संघ समर्थन से बनी पार्टी जनसंघ के आर मेवाड़ा विधायक चुनकर आए. हालांकि कांग्रेस के बड़े नेता अजीज कुरैशी ने 1972 के विधानसभा चुनाव में सीट वापस छीन और विधायक बने. उन्होंने भारतीय जनसंघ के सुदर्शन महाजन को 6782 वोट से हराया था, लेकिन इसके बाद हिंदुत्व लहर ने ऐसी पकड़ बनाई कि कांग्रेस सिर्फ एक बार ही सीट जीत पाई. यह हालात अब भी बरकरार है. इसकी वजह है कि नवाबी शासन के वक्त इस सीट पर आंदोलन चला और वह हिंदु मुस्लिम में कन्वर्ट हो गया. कृषि प्रधान इलाका होने के कारण ज्याादातर पिछड़ा वर्ग की जातियां निवास करती हैं और रोजगार की बहुत अधिक चिंता नहीं रही. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके अनुषांगिक संगठन बजरंग दल का भी खासा असर रहा. जब दो बार कांग्रेस ने मुस्लिम चेहरा मैदान में उतारा तो उसके खिलाफ एक माहौल बनाया गया, जो अब तक कायम है.
सीहोर विधानसभा क्षेत्र का राजनीतिक इतिहास: हिंदुत्व का रंग ऐसा चढ़ा कि, अब तक न उतरा. वर्ष 1977 में जब जनसंघ की बजाय जनता पार्टी बनी तो सविता वाजपेयी को टिकट दिया गया. वहीं कांग्रेस ने इस बार भी अपने वरिष्ठ नेता और बड़े चेहरे अजीज कुरैशी पर दांव लगाया, लेकिन अब तक हवा बदल चुकी थी. कुल 38575 लोगों ने वोटिंग की और जनता पार्टी की सविता वाजपेयी को 22956 वोट मिले, जबकि कांग्रेस के अजीज कुरैशी को 12708 वोट से संतुष्ट होना पड़ा और 10248 वोट से हार गए. तब यह बड़ी हार मानी गई थी. इसके बाद भारतीय जनता पार्टी अस्तित्व में आई और 1980 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने अपने तेज तर्रार चेहरे सुंदरलाल पटवा को सीहोर से टिकट दिया. कांग्रेस ने हवा का रुख बदलते देखा तो चेहरा भी बदल दिया और अमर चंद रोहिला को टिकट दिया और उनका दांव सही होते-होते बचा और वह महज 176 वोट से चुनाव हार गए. इस चुनाव में कुल 43249 वोट पड़े, जिनमें से पटवा को 19833 और कांग्रेस के रोहिला को 19657 वोट मिले.
1985 से 1993 तक सीट का इतिहास: इस कम अंतर की जीत को देखकर भाजपा ने 1985 के चुनाव में प्रत्याशी बदलकर टिकट मदनलाल त्यागी को दिया. कांग्रेस ने भी चेहरा बदला और शंकर लाल को टिकट दिया. उनका दांव सही बैठा. कांग्रेस के शंकर लाल को 25549 वोट मिले, जबकि भाजपा के त्यागी को 21845 वोट मिले और वे 3704 वोटों से चुनाव हार गए. इस जीत के बाद भी कांग्रेस ने 1990 के चुनाव में प्रत्याशी का चेहरा बदल दिया और शंकर लाल की बजाय इस बार रुकमणि रोहिला को टिकट दिया. उनका यह पैंतरा एकदम उलटा पड़ गया और तीसरा स्थान मिला. भाजपा ने मदनलाल त्यागी को रिपीट किया और वे 7745 वोट से चुनाव जीत गए, जबकि दूसरे नंबर पर निर्दलीय प्रत्याशी रमेश सक्सेना रहे. भाजपा कैंडीडेट को 26925 और निर्दलीय रमेश सक्सेना को 19180 वोट मिले. दूसरे नंबर पर आने से रमेश सक्सेना का उत्साह बढ़ गया और उन्होंने जमीन पर जबरदस्त संपर्क किया. खुद की इमेज हिंदुत्व वाली बनाई और इसी कारण जब वर्ष 1993 में विधानसभा चुनाव हुए तो वे निर्दलीय विधायक के रूप में चुनकर आए. उन्हें 39182 वोट मिले, जबकि दूसरे नंबर भाजपा के मदनलाल त्यागी रहे, जिन्हें 25826 वोट मिले और वे 13356 वोट से हार गए. यह भाजपा की बड़ी हार थी. वहीं कांग्रेस तीसरे नंबर पर खिसक गई.