सीहोर। देश जश्ने आजादी की 74वीं सालगिरह मना रहा है. और हम ऐसे तमाम नायकों को याद कर रहे हैं, जिन्होंने देश की आजादी में अपना बलिदान दिया. इस सूची में एक नाम नरसिंहगढ़ रियासत के कुंवर चैन सिंह का आता है. जिन्होंने अंग्रजों की विस्तारवादी नीति को चुनौती दी और गुलामी की बेड़ियां पहनने की जगह क्रांति का बिगुल फूंक दिया.
ऐसे हुई विद्रोह की शुरूआत
इस क्रांति की शुरूआत 1857 की क्रांति के 33 साल पहले हुई थी. जब ईस्ट इंडिया कंपनी की हुकुमत विस्तारवादी लिप्सा के नशे में चूर थी. राजे-रजवाड़ों और रियासतों को अधिकार विहीन कर रही थी. इस वजह से कंपनी की खिलाफत के बगावत की चिंगारी भी सुलगने लगी थी. जिसे 1818 में हुए नवाब और कंपनी के बीच ने ज्वालामुखी का रूप दे दिया.
गद्दारों को उतारा मौत के घाट
इस समझौते के बाद कंपनी ने सीहोर में एक हजार सैनिकों की छावनी बनाई. कंपनी द्वारा नियुक्त पॉलिटिकल एजेंट मैडॉक को इन फौजियों का प्रभारी बनाया गया. इस फौजी टुकड़ी का वेतन भोपाल रियासत के शाही खजाने से दिया जाता था. समझौते के तहत पॉलिटिकल एजेंट मैडॉक को भोपाल सहित नजदीकी नरसिंहगढ़, खिलचीपुर और राजगढ़ रियासत से संबंधित राजनीतिक अधिकार भी सौंप दिए गए. बाकी तो चुप रहे, लेकिन इस फैसले को नरसिंहगढ़ रियासत के युवराज कुंवर चैन सिंह ने गुलामी की निशानी मानते हुए स्वीकार नहीं किया. अंग्रेजों की आंखों का सूल बन चुके कुंवर चैन सिंह ने रियासत से गद्दारी कर रहे अंग्रेजों के पिट्ठू दीवान आनंदराम बख्शी और मंत्री रूपराम बोहरा को मार दिया.
अंग्रेजों की शर्तें मानने से किया इनकार
मंत्री रूपराम के भाई ने कुंवर चैन सिंह के हाथों अपने भाई के मारे जाने की शिकायत कलकत्ता स्थित गवर्नर जनरल से की. गवर्नर जनरल के निर्देश पर पॉलिटिकल एजेंट मैडॉक ने कुंवर चैन सिंह को भोपाल के नजदीक बैरसिया में एक बैठक के लिए बुलाया.
बैठक में मैडॉक ने कुंवर चैन सिंह को दीवान आनंदराम बख्शी और मंत्री रूपराम बोहरा की हत्या के अभियोग से बचाने के लिए दो शर्तें रखीं. पहली शर्त थी कि नरसिंहगढ़ रियासत, अंग्रेजों की अधीनता स्वीकारे. दूसरी शर्त थी कि क्षेत्र में पैदा होने वाली अफीम की पूरी फसल सिर्फ अंग्रेजों को ही बेची जाए. कुंवर चैन सिंह ने दोनों ही शर्तें ठुकरा दीं. जिस पर मैडॉक ने उन्हें 24 जून 1824 को सीहोर पहुंचने का आदेश दिया.
अंग्रेजों ने किया विश्वासघात
अंग्रेजों की बदनीयती का अंदेशा होने के बाद भी कुंवर चैन सिंह नरसिंहगढ़ से अपने विश्वस्त साथी हिम्मत खां और बहादुर खां समेत 43 सैनिकों के साथ सीहोर पहुंचे. जहां अंग्रेजों ने उन पर हमला कर दिया. कुंवर चैन सिंह और उनके मुट्ठी भर विश्वस्त साथियों ने शस्त्रों से सुसज्जित अंग्रेजों की फौज से डटकर मुकाबला किया. घंटों चली लड़ाई में अंग्रेजों के तोपखाने और बंदूकों के सामने कुंवर चैन सिंह और उनके जांबाज लड़ाके डटे रहे.
तलवार के वार से तोप को काट दिया
ऐसा कहा जाता है कि युद्ध के दौरान कुंवर चैन सिंह ने अंग्रेजों की अष्टधातु से बनी तोप पर अपनी तलवार से प्रहार किया. जिससे तलवार तोप को काटकर उसमे फंस गई. मौके का फायदा उठाकर अंग्रेज तोपची ने उनकी गर्दन पर वार कर दिया. जिससे कुंवर चैन सिंह की गर्दन रणभूमि में ही गिर गई और उनका स्वामीभक्त घोड़ा शेष धड़ को लेकर नरसिंहगढ़ आ गया. कुंवर चैन सिंह की धर्मपत्नी कुंवरानी राजावत ने उनकी याद में परशुराम सागर के पास एक मंदिर भी बनवाया. जिसे हम कुंवरानी के मंदिर के नाम से जानते हैं.
2015 से दिया जाता है गार्ड ऑफ ऑनर
सन 1857 के स्वाधीनता संग्राम के दौरान 6 अगस्त 1857 को हुए सीहोर सैनिक छावनी विद्रोह के भी 33 वर्ष पहले हुई नरसिंहगढ़ रियासत के युवराज कुंवर चैन सिंह और उनके साथियों की इस शहादत का अपना महत्व है. 1824 की ये घटना नरसिंहगढ़ रियासत के युवराज कुंवर चैन सिंह को इस अंचल के पहले स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के रूप में प्रतिष्ठित करती है. मध्य प्रदेश सरकार ने साल 2015 से सीहोर स्थित कुंवर चैन सिंह की छतरी पर गार्ड ऑफ ऑनर प्रारम्भ किया है.