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जिनसे अमेरिका था परेशान, जानिए 'ओशो' का सागर से क्या है नाता, क्यों सरकार से बहन नाराज

आचार्य रजनीश 'ओशो' मध्यप्रदेश में पैदा हुई ऐसी महान शख्सियत हैं, जिन्होंने अपने दर्शन से सिर्फ देश ही नहीं पूरी दुनिया को अचंभित कर दिया था. उनके दर्शन ने अलग अवधारणा के साथ विश्व शांति और प्रेम का संदेश दिया. शोसल नेटवर्क पर रजनीश (Osho Rajneesh) ओशो के कई कोटेशन आपने देखे होंगे. यह सब उनके के छोटे-छोटे सूत्र थे,जिससे वह लोगों को समझाया करते थे, उस जमाने में उनको भारत के लोग भी नहीं समझ पाए. लेकिन अब उनकी यादों को संरक्षित करने के लिए सागर से आवाज उठने लगी है. देखिए यह खास रिपोर्ट...

Osho Rajneesh Sagar
ओशो का सागर से नाता

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Published : Jan 12, 2023, 8:32 PM IST

Updated : Jan 12, 2023, 10:40 PM IST

ओशो का सागर से नाता

सागर। ओशो का सागर से गहरा नाता है. सागर विश्वविद्यालय से उन्होंने दर्शनशास्त्र की पढ़ाई की थी. कहा जाता है कि यहां पढ़ाई के दौरान उन्हें बोधिसत्व प्राप्त हुआ था. सागर शहर से ओशो की कई यादें जुड़ी हैं. ओशो प्रेमियों ने उस स्थान को संरक्षित करके रखा हुआ है. जिसके बारे में कहा जाता है कि ओशो को पहली बार यही बोधिसत्व प्राप्त हुआ था. ओशो की छोटी बहन की शादी सागर में हुई, जो खुद ओशो की शिष्या थीं. ओशो के बहनोई ओशो के दर्शन के अध्येता और जानकार हैं. आज उनकी छोटी बहन मध्यप्रदेश की मौजूदा और पिछली सरकारों से और केंद्र की सरकारों से नाराज हैं. उनका कहना है कि ना तो उसी की जन्मस्थली और ना ही उनकी अध्ययन स्थली सागर से जुड़ी उनकी यादों को संरक्षित करने में सरकारों ने कोई कदम नहीं उठाया.

कौन थे ओशो:मध्य प्रदेश के रायसेन (Raisen) जिले के कुचवाड़ा गांव के एक व्यापारी जैन परिवार में इनका का जन्म हुआ था. बचपन में इनका नाम चंद्र मोहन जैन (Chandra Mohan Jain) था. इनकी शुरुआती शिक्षा गाडरवारा में हुई थी. इसके बाद ये जबलपुर (Osho Rajneesh Jabalpur) पहुंच गए थे. दर्शनशास्त्र (Philosophy) की पढ़ाई के दौरान ओशो ने अपने शिक्षक को चुनौती दे दी थी और उन्हें अपने तर्कों से हरा दिया था.

ओशो का सागर विश्वविद्यालय से नाता

विश्वविद्यालय में धारण किए थे सन्यास: आचार्य रजनीश सागर विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र की पढ़ाई की थी. वह अपने छात्र जीवन से ही सन्यासी की वेशभूषा में आ गए थे. जब वह सागर विश्वविद्यालय के विद्यार्थी थे तो लकड़ी की पादुका लूंगी और चद्दर पहना करते थे. इस तरह की प्राकृतिक वेशभूषा उनकी पहचान थी. कई बार उन्हें अपनी पढ़ाई के दौरान अपमानित होना पड़ा कि विद्यार्थियों के बीच ऐसा पहनावा वह क्यों पहनते हैं, लेकिन वह विरोध के बाद डरे नहीं, अपने छात्र जीवन में भी एक संन्यासी की तरह रहते थे.

ओशो के गुरु ने जब छुए अपने शिष्य के पैर:पूरी दुनिया में मशहूर होने के बाद 1971 में ओशो सागर आए थे. सागर में कई जगह उनके कार्यक्रम आयोजित किए गए. सागर के म्युनिसिपल स्कूल प्रांगण में उनकी सार्वजनिक सभा हुई थी. जिसमें हजारों की संख्या में लोग आए थे. उन्हीं दिनों प्रसारित होने लगा था कि उनके भविष्य का बहुत बड़ा विस्तार है. सागर विश्वविद्यालय में जवाहरलाल नेहरू पुस्तकालय में एक गोष्ठी आयोजित की गई थी. उनके गुरु व्ही के सक्सेना थे, जिन्होंने उन्हें दर्शनशास्त्र पढ़ाया था. जब ओशो पुस्तकालय की सीढ़ियां चढ़ रहे थे, तो उनके गुरु ने उनके पैर छुए और कहा कि आज मेरे जन्म-जन्म की परिक्रमा पूरी हो गई.

ओशो की कहानी

विश्व शांति के लिए अनोखा संदेश:आचार्य रजनीश के बहनोई कैलाश सिंघई कहते हैं कि, सांसारिक दृष्टिकोण से मेरे वह रिश्तेदार थे, लेकिन मौलिक रूप से उनका नैसर्गिक व्यक्तित्व था. जो आध्यात्मिक गुरु जैसा था. शुरू से ही हमारे बीच की दूरी रही है. जिस तरह से किसी सांसारिक रिश्ते और आध्यात्मिक गुरु के बीच रहती है. वो दूरी हमारे और उनके बीच थी. हम भी उनका उतना ही आदर करते थे, जितना उनका आदर उनके शिष्य करते थे. जिंदगी की विभिन्न विधाओं में उनके दर्शन ने जो संदेश दिए हैं. वह विलक्षण हैं. अगर ऐसा होने लगे, तो हमारी जो सार्वजनिक मान्यताएं हैं कि संसार ऐसा होना चाहिए और हमारी व्यक्तिगत जिंदगी ऐसी होनी चाहिए. यह सब चीजें उनके जीवन दर्शन में समाहित हैं. जैसे कि उन्होंने विश्व शांति के लिए विलक्षण संदेश दिया था. उनका संदेश था कि दुनिया भर में जो एक दूसरे देश के युद्ध हो रहे हैं. उसका कारण सिर्फ उन देशों की सीमाएं हैं. अगर सीमाएं समाप्त हो जाए तो विश्व में शांति स्थापित हो जाए. जिस तरह भारतीय दर्शन में "वसुधैव कुटुंबकम" की अवधारणा है. उसी तरह उनका संदेश था कि दुनिया भर के देशों की सीमा समाप्त हो जाए, तो विश्व में पूर्ण शांति स्थापित हो जाए.

सन्यास अवधारणा से विपरीत ओशो की अवधारणा:ओशो के दर्शन की बात करें, तो उन्होंने जीवन जीने की एक नई पद्धति दी है. हमारे यहां सन्यास की जो प्रचलित अवधारणा है कि जब कोई व्यक्ति चाहे किसी धर्म या संप्रदाय का हो. अगर संन्यास लेता है, तो उसे घर परिवार छोड़कर सन्यास लेना पड़ता है, लेकिन उसने संयास की नई अवधारणा दी कि, आप अपने परिवार में रहकर अपने जीवन की सभी जरूरतों को पूरी करते हुए भी सन्यासी बन सकते हैं. संसार से भागकर संन्यास हो. ऐसा नहीं है. संसार में रहकर भी सन्यास लिया जा सकता है. इसके लिए उन्होंने 'जोरबा द बुद्ध' एक शब्द दिया था. उनका कहना था कि हमारी जिंदगी जीने के लिए हम तरह-तरह के मुखोटे लगाते हैं. अलग-अलग लोगों से हमारा अलग-अलग व्यवहार होता है, लेकिन भीतर और बाहर हम एक हैं तो जिंदगी का स्वरूप अलग होगा. इसी को उन्होंने साक्षी भाव और सन्यास कहा है.

सरकार से क्यों नाराज ओशो की बहन:ओशो की बहन नीरू जैन, जिन्होंने ओशो से दीक्षा ली थी. उनका नाम मां योगिनी हो गया था. आज वह मध्य प्रदेश की मौजूदा और पहले की सरकारों के साथ-साथ केंद्र की सरकारों से नाराज हैं. उनका कहना है कि आज यह साफ दिख रहा है कि देश और प्रदेश की सरकारों ने उन्हें कुछ नहीं समझा. जहां उनका जन्म हुआ, वहां की मध्यपदेश सरकार ने भी उन्हें कुछ नहीं समझा. वह सागर में पढ़े और पुराने विश्वविद्यालय में उनकी पढ़ाई हुई. सागर पहली वो जगह है,जहां उन्हें बोधिसत्व प्राप्त हुआ. जिस वृक्ष पर बैठकर वह ध्यान करते थे. आज उसकी दशा देखिए. क्या राज्य सरकार का फर्ज नहीं बनता कि वहां ऐसा कुछ बनाया जाए कि लोग पर्यटन स्थल के रूप में उसे देखने आए.

ओशो का एमपी से नाता

सरकार ने नहीं दिया ध्यान:ओशो के बहन की नाराजगी सरकार से इस बात को लेकर है कि, जिस वृक्ष के पास बैठकर वह ध्यान करते थे, आज वहां कुछ भी नहीं हैं, जिस वृक्ष के पास बैठकर वह ध्यान करते थे, वह आज सिर्फ एक ठूंठ के रूप में बचा हुआ है. वहां स्थानीय लोगों ने भले एक चबूतरा बना दिया है. मुझे उनकी बहन होने के नाते दुख होता है और ओशो प्रेमियों की भी यही शिकायत है कि कुछ करना चाहिए. यही हाल ओशो की जन्मभूमि कुछवाड़ा का है. जिस मकान में उनका जन्म हुआ था, उसे आज विदेशियों ने खरीद लिया है. जिस कमरे में उनका जन्म हुआ था, उसको तो जस का तस रखा गया है लेकिन बाकी मकान बदल दिया गया है. सरकार चाहती तो उसे संरक्षित कर सकती थी और पर्यटन स्थल घोषित कर सकती थी. आज ओशो के नाम पर पुणे में हजारों लोग आते हैं. अगर सागर और उनके जन्म स्थान में कुछ उनकी याद में बनाया गया होता, तो हजारों लोग इधर भी आते.बस यही शिकायत है कि सरकार ने उनको महत्त्व नहीं दिया.

सभी धर्म के धर्मगुरुओं को चुनौती:1960 और 70 के दौर में ओशो हिंदू (Hindu), मुस्लिम (Muslims) और जैन धर्म के लोगों को चुनौती दिए थे. उस जमाने में साधु-संतों के खिलाफ बोलना किसी विद्रोह से कम नहीं था. इसके बाद ओशो रॉबर्टसन कॉलेज (Roberson College) में दर्शनशास्त्र के शिक्षक हो गए थे, लेकिन उनका विद्रोही स्वभाव और दर्शनशास्त्र को समझने की समझ बहुत दिनों तक उन्हें इस पद पर रोक नहीं पाई.

जला दीं थी अपनी डिग्रियां: माना जाता है कि, ओशो ने रॉबर्टसन कॉलेज में अपनी सभी डिग्रियों को जला दिया था. इसके बाद वे जबलपुर से मुंबई चले गए थे. यहां विद्रोही विचारों का बड़ा सम्मान हुआ. 70 से 80 के दशक में रजनीश ओशो बन गए. दुनिया में उनके अनुयायी ओशो (Osho Follower) का सक्रिय ध्यान योग करने के लिए मुंबई (Mumbai) आने लगे. इन्हीं अनुयायियों के कहने पर ओशो ने अमेरिका जाना स्वीकार किया था.

अमेरिका में बसाया अपले नाम का शहर:अमेरिका (America) के ऑर्गन नाम की जगह पर 36000 एकड़ में ओशो ने रजनीशपुरम (Rajneeshpuram) नाम का शहर बसा दिया था. दुनिया के सबसे कम समय में सबसे तेजी से विकसित होने वाले इस शहर में 1 एयरपोर्ट भी था. इसमें ओशो के खुद के प्राइवेट जेट (Private Jet) थे. ओशो जिस सन्यास की बात कर रहे थे. वह दुनिया के अब तक किसी भी धर्म, मजहब, संप्रदाय और विचार में सुनाया और समझाया नहीं गया था.

अमेरिका सरकार ने लगवाए मुकदमे:ओशो ने लोगों को रूढ़िवादी (Traditional Method) से निकलकर तर्क के संसार में उतारा. कम समय में योग और ध्यान के जरिए ना सिर्फ आनंद पाने का रास्ता बताया, बल्कि इसका प्रयोग भी किए. यह वह दौर था जब दुनिया के विकसित देशों में भौतिकता चरम पर थी. अमेरिका के बहुत सारे धनाढ्य 'ओशो' के साथ जुड़ने लगे थे. इसकी वजह से अमेरिका की सरकार ने रजनीश को रोका और उन पर फर्जी मुकदमें दर्ज करवाए. सरकार (America Government) के दबाव में पहले उन्हें अमेरिका से निकाला गया. फिर दुनिया के 21 देशों में यह हिदायत जारी की गई कि, उन्हें अपने देश में ना रुकने दिया जाए. निर्वाचन के समय ओशो नेपाल में थे. बाद में वे सरकारों से लड़ने की बजाय भारत के पुणे में जाकर रहने लगे थे. ओशो अंतिम समय तक पुणे (Pune) में ही रहे. ओशो अकेले ऐसे दार्शनिक थे, जो मरने के पहले अपने अनुयायियों से कह दिए थे कि, मेरी मृत्यु का उत्सव मनाना.

संभोग से समाधि: ओशो गजब के पढ़ाकू थे. वह स्कूल और कॉलेज के दिनों में शायद ही कोई ऐसी लाइब्रेरी थी, जिसमें ओशो ने पूरे-पूरे दिन पढ़ाई ना की हो. वे दिन भर या तो पुस्तक की दुकानों पर पाए जाते थे या फिर लाइब्रेरी में. धर्मों की पुस्तकों के अलावा उन्होंने विज्ञान, समाजशास्त्र और दर्शन शास्त्र की पुस्तकें भी पढ़ी थी. इस पर प्रवचन दिए थे. इन्हीं के प्रवचन (Osho Pravachan) ट्रांसक्रिप्ट बनाकर बहुत सारी पुस्तकें लिखी गईं थी. इनमें कुरान, गुरु ग्रंथ साहिब, बाइबल, मीरा के दोहे, कबीर का जीवन, बौद्ध भिक्षुओं का जीवन और कई इस्लाम के संतों पर उन्होंने प्रवचन दिए.

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पुस्तक से हुए बदनाम:हिंदू धर्म की सबसे बड़ी पुस्तक गीता पर उन्होंने जो लिखा है, गीता को समझने का वैसा नजरिया किसी और लेखक का आज-तक नहीं मिला. ओशो जिस पुस्तक की वजह से सबसे ज्यादा बदनाम हुए, उसका नाम संभोग से समाधि की ओर था. इस पुस्तक से उन्हें दुनिया में सेक्स गुरु (Sex Guru Osho) का दर्जा मिला था. ओशो को पढ़ने वाले लोगों की माने तो ओशो के साहित्य में जीवन के तमाम पहलुओं में से यह पुस्तक एक है. ऐसा नहीं है कि, ओशो सिर्फ सेक्स पर ही बोलते रहे.

Last Updated : Jan 12, 2023, 10:40 PM IST

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