सागर।नवरात्रि में दुर्गोत्सव की बात हो और बुंदेलखंड के सागर की पुरव्याऊ टोरी पर स्थापित होने वाली मां दुर्गा की प्रतिमा की बात ना हो, तो नवरात्रि का त्योहार अधूरा जान पड़ता है. दरअसल, सागर के पुरव्याऊ टोरी में पिछले 119 साल से मां दुर्गा की स्थापना की जा रही है. खास बात ये है कि दुर्गोत्सव में 119 साल पुरानी परंपराओं को अभी तक सहेज कर रखा है. 119 साल पहले जैविक तरीके से माता की मूर्ति का निर्माण किया जाता था, वैसे आज भी किया जाता है। हर साल माता की मूर्ति एक जैसी होती है.
माता का श्रृंगार सोने और चांदी के असली आभूषण से किया जाता है. किसी भी तरह की आर्टिफिशियल ज्वेलरी से नहीं किया जाता है और हर साल नए आभूषण खरीदे जाते हैं. एक सदी पहले जैसे मां की शोभायात्रा कंधों पर निकालकर विसर्जन किया जाता था. आज भी माता को कंधों पर बिठाकर मशाल की रोशनी में विसर्जन के लिए ले जाते हैं. मशाल के पीछे कंधों पर मां की पालकी लिए भक्त चल माई के उद्घोष के साथ निकलते हैं. सारा शहर मां के दर्शन के लिए कतार में खड़ा हो जाता है.
1905 में शुरू हुई मां दुर्गा की स्थापना:दुर्गोत्सव समिति के प्रमुख राजेंद्र सिंह ठाकुर दिल्ली में एक फैक्ट्री संचालित करते हैं. हर साल नवरात्रि के पहले ही तैयारियों के लिए आ जाते हैं. राजेंद्र सिंह मूर्ति कला में निपुण हैं और खुद मूर्ति तैयार करते हैं. राजेंद्र सिंह बताते हैं कि मां दुर्गा की स्थापना की परंपरा और उनके पूर्वज हीरा सिंह ठाकुर ने की थी जो स्वयं मूर्तिकार थे और ऐसे किसी धार्मिक आयोजन की रूपरेखा बना रहे थे, जिसके जरिए लोगों को संगठित किया जा सके. उनके मन में नवरात्रि पर मां दुर्गा की स्थापना का विचार आया और मूर्ति निर्माण के लिए कई दिनों कोलकाता में रहे, फिर खुद मूर्ति बनाकर 1905 से पुरव्याऊ टौरी पर मां दुर्गा की स्थापना की शुरुआत की.
आज भी 100 साल पुराने तरीक़े से बनती है मूर्ति:राजेंद्र सिंह बताते है कि मूर्ति पूरी तरह से जैविक तरीके से तैयार की जाती है. जिस तरह की मूर्ति बनाकर हीरा सिंह जी ने उत्सव की शुरुआत की थी. आज भी वैसे ही तैयार की जाती है। मिट्टी से मूर्ति बनाई जाती है. किसी भी तरह के केमीकल का उपयोग नहीं किया जाता है. मूर्ति के लिए पानी वाले रंग का उपयोग किया जाता है. महिषासुर मर्दनी के रूप में पालकी पर मां दुर्गा की मूर्ति बनाई जाती है. ऐसा इसलिए किया जाता है क्योंकि मां की शोभायात्रा किसी वाहन पर नहीं बल्कि भक्तों के कंधों पर निकलती है. जैसी परम्परा 1905 में शुरू हुई थी.