सागर।मंत्री गोपाल भार्गव के बेटे अभिषेक भार्गव बीते 10 साल से अपने पिता के चुनाव के प्रचार अभियान की जिम्मेदारी अपने कंधों पर लिए हैं. मौजूदा विकास यात्रा भी अभिषेक भार्गव के नेतृत्व में निकल रही है. कभी लोकसभा चुनाव में तो कभी विधानसभा चुनाव में अभिषेक भार्गव के चुनाव मैदान में उतरने की चर्चा चलती है. लेकिन किसी ना किसी कारण के चलते अभी तक अभिषेक भार्गव को अपनी किस्मत आजमाने का मौका नहीं मिला है. सियासी पंडित मानते हैं कि गोपाल भार्गव उम्र के 70 साल का पड़ाव पूरे कर चुके हैं और अब उन्हें अपने बेटे को अपनी विरासत सौंपने की तैयारी करना चाहिए. हालांकि करीब 20 साल तक कैबिनेट मंत्री रहने और नेता प्रतिपक्ष रहने के बाद अब उनकी महत्वाकांक्षा सिर्फ मुख्यमंत्री बनने की बाकी रह गई है.
मंत्री गोपाल भार्गव का सियासी सफरनामा :मंत्री गोपाल भार्गव की बात करें तो बिना किसी बड़ी राजनैतिक विरासत के उन्होंने ये मुकाम हासिल किया. कहा जाता है कि गोपाल भार्गव भी जेपी आंदोलन से निकले नेता है. गोपाल भार्गव कभी कांग्रेस के सक्रिय सदस्य हुआ करते थे और रहली विधानसभा के ब्लॉक अध्यक्ष भी रहे हैं. गोपाल भार्गव के गृह नगर गढ़ाकोटा को तहसील बनाए जाने का आंदोलन चल रहा था. आंदोलन उग्र हो गया और पुलिस को गोली चलानी पड़ी, जिसमें एक शख्स की मौत भी हो गई और गोपाल भार्गव की जान भी किस्मत से बची. आंदोलन की चर्चा चारों तरफ चल पड़ी और गोपाल भार्गव एक क्रांतिकारी युवा के रूप में मशहूर होते गए. 1980 में भारतीय जनता पार्टी का गठन हुआ. नई नवेली भाजपा कांग्रेस के उन नेताओं पर डोरे डाल रही थी जिन्हें किसी न किसी वजह से कांग्रेस में उचित स्थान हासिल नहीं हो पा रहा था. 1985 के विधानसभा चुनाव में गोपाल भार्गव ने कांग्रेस छोड़कर भाजपा का दामन थाम लिया और रहली विधानसभा से भाजपा के चुनाव पर टिकट लड़े. उन्होंने रहली इलाके के कद्दावर विधायक महादेव प्रसाद हजारी को हराकर अपनी चुनावी राजनीति की शुरुआत की. 1985 से लेकर 2018 तक रेहली विधानसभा के सभी चुनाव गोपाल भार्गव ने ही जीते. इसी वजह से गोपाल भार्गव को बुंदेलखंड के अजय योद्धा की उपाधि दी जाती है.
गोपाल भार्गव के बेटे को इंतजार :मंत्री गोपाल भार्गव का राजनीतिक इतिहास कई उपलब्धियों से भरा है तो दूसरी तरफ उनके इकलौते बेटे अभिषेक भार्गव को अपनी राजनीतिक पारी की शुरुआत का अब भी इंतजार है. पिछले 10 साल से लगातार अभिषेक भार्गव लोकसभा और विधानसभा चुनाव में अपनी दावेदारी पेश करते हैं. लेकिन कभी परिवारवाद के नाम पर तो कभी किसी दूसरे कारण से उनके हाथ से बाजी निकल जाती है. जहां तक अभिषेक भार्गव की बात करें तो 2003 से वह पिता की राजनीतिक विरासत की जिम्मेदारी संभाल रहे हैं. 2003 में जब गोपाल भार्गव पहली बार कैबिनेट मंत्री बने और उनकी व्यस्तताएं बढ़ी, तो उनके बेटे अभिषेक भार्गव ने विधानसभा क्षेत्र की तमाम जिम्मेदारी संभाली और अपने पिता से राजनीति का ककहरा सीखना शुरू किया. 10 साल की अथक मेहनत के बाद अभिषेक भार्गव ने संगठन के माध्यम से राजनीति की शुरुआत करना चाही, लेकिन राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के चलते भाजयुमो के प्रदेशाध्यक्ष बनते-बनते रह गए. 2013 के विधानसभा चुनाव के बाद अभिषेक भार्गव ने चुनावी राजनीति में उतरने का फैसला किया और 2014 के लोकसभा चुनाव में बुंदेलखंड की सागर दमोह के अलावा खजुराहो से भी दावेदारी पेश की लेकिन लाख कोशिशों के बाद उन्हें टिकट नहीं मिल सका.