सागर। शहर से सटे झांसी मार्ग पर स्थित गढ़पहरा के किले का इतिहास करीब 400 साल पुराना है. गोंड राजा संग्राम शाह से गढ़पहरा के किले के इतिहास की शुरुआत होती है. इसके बाद डांगी राजपूत राजाओं ने भी गढ़पहरा के किले पर राज किया. इन्हीं राजाओं ने शीश महल का निर्माण भी कराया था. पहाड़ पर इस किले के अवशेष आज भी मौजूद हैं, जिन्हें आसानी से देखा जा सकता है.
गढ़पहरा का अपना ऐतिहासिक महत्व
किले के पास प्राचीन हनुमान मंदिर भी है, जहां आषाढ़ माह में मेला लगता है. गढ़पहरा का अपना ऐतिहासिक महत्व है, क्योंकि 1857 की क्रांति में यहां के शासक ने बढ़-चढ़कर योगदान दिया. साथ ही लंबे समय तक विद्रोह की अलख को जगाए रखा था. गढ़पहरा के इतिहास को लेकर यह भी तथ्य है कि जंतर-मंतर और कई ऐतिहासिक इमारतों का निर्माण करने वाले राजा जय सिंह कछवाहा और उनके वंशजों ने इस किले पर करीब 200 साल तक राज किया था.
जब राजा को हो गया था नर्तकी से प्यार
गढ़पहरा किले के बारे में एक कहावत ये भी है कि यह एक नट नर्तकी के श्राप के कारण अभिशप्त हुआ है. और वीरान हो गया. किले परिसर में रहने वाले महंत गोकलदास बताते हैं कि इस किले के बारे में कहा जाता है कि इससे 360 मौजे लगी हुई थी. किले के सामने बने पहाड़ पर एक नट नर्तकी रहती थी. राजा को नर्तकी से प्रेम हो गया और राजा ने उसके लिए शीश महल का निर्माण कराया, लेकिन राजा लोक लिहाज और रानी के कारण नर्तकी को सीधे तौर पर महल भेंट नहीं कर सकता था.
कुछ ऐसा हुआ की नर्तकी ने दिया श्राप
ऐसे में राजा ने नर्तकी से कच्ची रस्सी पर नृत्य करते हुए शीश महल तक पहुंचने की शर्त रखी. नर्तकी ने चुनौती स्वीकार करते हुए आधा रास्ता तो पार कर लिया, लेकिन राजा ने छल करते हुए अपने सेवक से रस्सी कटवा दी और नर्तकी की गिरने के कारण मौत हो गई. जिसके बाद नर्तकी ने राजा का वंश समाप्त होने और किला खंडहर होने का श्राप दे डाला, तभी से गढ़पहरा का किला खंडहर हो गया है.
राजा ने 1857 के विद्रोह में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया
बता दें कि 1857 की क्रांति के समय गढ़पहरा के तत्कालीन शासक राजा मर्दन सिंह थे. राजा मर्दन सिंह ने 1857 के विद्रोह में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था. लगभग एक साल तक उन्होंने अंग्रेजों की प्रशिक्षित और साधनों से सुसज्जित फौज को कड़ी टक्कर दी थी. शाहगढ़ के तत्कालीन राजा बख्तबलि और राजा मर्दन सिंह ने संयुक्त रूप से अंग्रेजों का मुकाबला करते हुए सीमित संसाधनों के बावजूद कड़ी टक्कर दी थी.
जमकर किया मुकाबला
ब्रिटिश सेना प्रशिक्षित थी और मजबूत संसाधन होने के कारण मदन सिंह और बख्तबली की संयुक्त फौज उसका ज्यादा दिन सामना नहीं कर सकी और हार गई. इसके बाद उन्होंने झांसी की रानी लक्ष्मीबाई और तात्या टोपे से मदद मांगी, लेकिन इन लोगों की संयुक्त सेना भी अंग्रेजों से हार गई थी और करीब एक साल के प्रचंड विरोध के बाद राजा मर्दन सिंह और बख्तबली की सेना ने समर्पण कर दिया.