रतलाम/मंदसौर।मुमकिन है कि ये अपने जिस्म के हिस्से को फिर जिस्म के धंधे से बचा लेने की कोशिश हो, वरना क्यों है इस समाज में ऐसा चलन कि बेटी के मां की कोख में आने के साथ उसका नाम बाद में तय होता है, पहले तय होता है रिश्ता. ये तय होता है कि वो किसके साथ ब्याही जाएगी, जिनका मां बनना भी मजबूरी का हिस्सा हो, जिनका जीवन बस एक रात का किस्सा हो. जो हर शाम लगाती हैं अपने जिस्म की बोली. उस समाज की है ये अजीब रिवायत कि जिसमें न औरत के हिस्से मां बनने की मर्जी है, न कोख में पल रही मासूम को मिल पाया है कोई अधिकार. दुधमुंही बच्ची के साथ ही जोड़ दिया जाता है कोई नाम और वो अपने ही घर में अमानत हो जाती है.
रतलाम-मंदसौर के हाईवे से लगे माननखेड़ा गांव में शाम ढले लिपिस्टिक लगाए घर के दालान में बैठी लड़कियों से नजर हटाकर मैंने उन बच्चियों पर निगाह की थी. बादलों के पीछे भागती लड़कियां, जो नहीं जानती ये दौड़ एक खूंटे पर खत्म हो जानी है. इस गांव में मां के पेट में बच्चा आने से लेकर उसके दुनिया में पहला कदम रखने तक, अपना अलग संविधान लिए बैठा है ये समाज और संवैधानिक मूल्य तार-तार हो रहे हैं. एक ऐसा समाज जहां शादी गुड्डे-गुड़िया का ही खेल है. देखें रतलाम-मंदसौर में जिस्म की मंडी कहे जाने वाले इलाके से ईटीवी भारतकी संवाददाता शिफाली पांडे की ग्राउंड रिपोर्ट.
बाली उम्र में बच्चियों का रिश्ता तय:रतलाम-मंदसौर के हाईवे किनारे बसे बांछड़ा समाज के डेरों के नाम से मशहूर इन गांवों में खड़े आलीशान मकान ही हैरान कर देने की वजह नहीं है, एमपी के दूसरे गांवों से तुलना कीजिए तो और भी बहुत कुछ अलग है यहां. हाईवे किनारे रुक जाने वाली लक्जरी गाड़ियां और उस तक पहुंचती लड़कियों की ब्लर तस्वीरों से आगे दौड़ती वो बच्चियां भी तो हैं. 7 महीने 8 महीने की मासूम बच्चियां और कई तो ऐसी जो कोख में आई उसी दिन तय कर दिया गया कि ये किसके साथ ब्याही जाएंगी.
हालांकि ब्याह इनके 16 बरस के हो जाने के बाद होता है, लेकिन पैदा होने के साथ ही चस्पा कर दिया जाता है इनके नाम के साथ एक और नाम जो इनकी पहचान बन जाता है. जैसे संतोषी ने बताया "वो खेल रही परी, अब अंशू की है." एक औरत के मां बनने से लेकर, एक बेटी को पैदा करने तक और संविधान में मां को मिले सारे अधिकार और जन्म के साथ बतौर एक नागरिक या कहें कि बेटी को मिलने वाले सारे हक यहां दरकिनार हैं. इस समाज का अपना कानून है, अपना कायदा है.
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बेटी से मर्जी क्या और क्यों पूछना:रतलाम के आखिरी छोर पर बसे माननखेड़ा गांव में 1800 के करीब घर हैं, इनमें बांछड़ा जाति के डेरे भी हैं. हाईवे से लगे सारे मकान इन्हीं के हैं. यहीं मिली सरोज (परिवर्तित नाम) की आंखों के आगे कितनी ही लड़कियां इस जिस्मकी मंडी में आईं और गई हैं. सरोज कहती हैं, "हम तो यही चाहते हैं कि ब्याह के ये लड़कियां एक की होकर रह जाएं, जितनी पर्दे वाली दिख रही हैं न आपको ये सब ब्याहता हैं. बाकी हमारे समाज में तो सारी बच्चियों का भी रिश्ता हम पहले ही तय कर देते हैं."
ये सवाल करने पर कि कितनी उम्र से तय हो जाते हैं रिश्ते...? इस पर सरोज कहती हैं कि "कोख में ही हो जाता है कई बार, बेटी हुई तो.. ये कहकर पक्की कर लेते हैं." मैदान में खेल रही 3, 5 और 7 बरस की छोटी-छोटी लड़कियां शादी का ठीक-ठीक मतलब भी नहीं जानती, लेकिन इतना जानती हैं कि उनकी शादी किस लड़के से पक्की हो चुकी है. सरोज संभलकर कहती हैं कि "अभी तो पढ़ा लिखा रहे हैं, स्कूल जाती हैं. लेकिन जब 17 में लग जाएंगी, शादी तब ही करेंगे."