मंडला। मां नर्मदा का किनारा तो कभी बस स्टैंड, या फिर कला दीर्घा की दहलान, मंदिर हों या पूजा घर, इन बेघर बार लोगों को कभी पता ही न चला कि अपना आशियाना क्या होता है, खुला आसमान, छत के नाम पर टीन शेड, चारदीवारी का तो सवाल ही नहीं और भगवान भरोसे ज़िंदगी, हर आहट पर जागती सोती आंखे, ये कहानी है उन बेघरों की जिनके घरों का सपना कभी पूरा नहीं हुआ और नियम कानून की जटिलताओं के चलते नसीब हुआ तो सिर्फ फर्श का बिस्तर और तारे गिनती हुई रात.
इन्हें पेट भरने के लिए तो यहां वहां से इंतजाम हो ही जाता है, नर्मदा के दर्शन को आने वाले श्रद्धालु दान के नाम पर अनाज या पैसे दे जाते हैं, वहीं बहुत से लोग ऐसे भी हैं. जो घर-घर जाकर हाथ फैलाकर पेट की ज्वाला जैसे-तैसे शांत कर ही लेते हैं, लेकिन ढलता हुआ सूरज हर रोज एक ऐसी मुसीबत लेकर आता है. जिससे निजात पाना तो सभी का सपना होता है, लेकिन इन लोगों का वह सपना कभी पूरा होता ही नहीं, हम बात कर रहें हैं उन बेचारों की. जिनके अपने आशियाने ही नहीं और ठंड, गर्मी हो या बारिश हर रात बिताई है नर्मदा किनारे बने घाटों पर टीन शेड, पुल के नीचे या फिर बस स्टैंड या ऐसे स्थानों पर जहां चारदीवारी के नाम पर कुछ नहीं होता बस दिन भर की थकान मिटाने के लिए कमर सीधे करने की जगह होती है.
क्यों हैं बेघर
भगवान भरोसे जिंदगी की गाड़ी ढ़ो रहे इन लोगों में अधिकांश अपनों के सताए हैं या फिर ऐसे बुजुर्ग जिनका दुनिया में अब कोई नहीं और है भी तो उन्हें अपनों में नहीं गिनता बस यही कारण हैं कि चंद गठरियों में गृहस्ती को समेटे, ईंट के चूल्हे और 4 बर्तन के सहारे अपने दिन गुजारने को मजबूर हैं. खाने को तो जैसे तैसे सभ्य समाज इन्हें भिखारी समझकर उखड़े मन से या दिखावे के लिए कुछ दे ही देता है. लेकिन जब रात आती है तो तमाम परेशानियों के बाद भी हर मौसम इन्हें यहीं सोने का नाटक करना होता है जो जानवरों की चहलकदमी और कुत्ते भूकने से करवटें बदलने लग जाते हैं. इसके साथ ही यह डर की कोई सरकारी कर्मचारी या वर्दीधारी पूछताछ के लिए तो न आ जाए, कभी हाथ पैर साथ न दिए तो भी सुबह जल्दी उठकर डेरा समेटकर व्यवस्थित रखना ही है क्योंकि देर तक सोए तो उन मालिकों की गालियां ही नसीब होगी जो न तो इन मंदिरों के मालिक हैं न नदी के घाटों के और न ही पेड़ के या पुल के.
क्या कभी मिलेगा आशियाना ?