झाबुआःजनजाति बाहुल्य झाबुआ जिले में धुलेंडी के दिन आदिवासी समुदाय ने परंपरागत त्योहार गल और चूल मनाकर मनौतियां (मन्नत) पूरी की. जिले में दो दर्जन से अधिक ग्रामीण क्षेत्रों में इन पर्वों का आयोजन किया गया. इस दौरान मुर्गों और बकरों की बलियां भी दी जाती हैं. गल और चूल मनाए जाने वाले स्थानों पर भारी भीड़ जुटी.
गल और चूल में मुर्गों और बकरों की बलियां भी दी जाती हैं. एक सप्ताह तक व्रत रखता है मन्नतधारी
होलिका दहन के दूसरे दिन धुलेंडी की शाम को आदिवासी समाज में गल घूमने की प्रथा है, जिसके तहत आदिवासी मन्नतधारी व्यक्ति एक सप्ताह पूर्व से व्रत रखता है और अपने शरीर पर हल्दी लगाकर लाल वस्त्र पहनता है. इसके अलावा सिर पर सफेद पगड़ी, हाथों में नारियल और कांच रहता है. मन्नतधारी के गाल पर काला निशान भी होता है. आदिवासी धुलेंडी के दिन गल देवरा घूमते हैं.
25 फिट ऊंचे मचान पर लटकाया जाता है मन्नतधारी
गल 20 से 25 फिट ऊंचा लकड़ी का मचान होता है. मचान गेरू के लाल कलर से रंगा होता है. यह अक्सर गांव और फलिये के बहार स्थित रहता है. इस मचान पर एक लंबा लकड़ी का मजबूत डंडा बहार निकला होता है, जिस पर मन्नतधारी व्यक्ति को लटका कर बांधा जाता है. इसके बाद नीचे से उसे रस्सी से चारों ओर घुमाया जाता है. यह प्रक्रिया चार से पांच बार की जाती है. गल देवरा के नीचे पुजारी, बड़वा बकरे की बलि देता है और शराब की धार गल देवता को दी जाती है.
शरीर पर हल्दी और कुमकुम लगाकर घूमते हैं मन्नतधारी
धुलेंडी की शाम को आदिवासी समाज में गल घुमने की प्रथा है. मन्नत पूरी करने से पहले आदिवासी समुदाय के मन्नतधारी व्यक्ति एक सप्ताह तक व्रत रख भक्ति करता है. इस दौरान आदिवासियों की भीड़ इकट्ठा होती है. कई जगहों पर झूले, चकरी भी लगते हैं. आदिवासी लोग ढोल बजाते हैं, नाचते और गाते हैं. बकरे का सिर पुजारी लेता हैं और धड़ मन्नतधारी का परिवार ले जाता है. फिर गांव में खाने पीने की दावत होती है.
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त्योहार की हैं अलग मान्यताएं
माना जाता है कि घर में किसी प्रकार की बीमारी न हो, देवता गांव और परिवार के लोगों पर प्रसन्न रहे इसलिये इस पर्व को मनाया जाता है. जिले के कई ग्रामीण क्षेत्रों में गल के साथ ही चूल भी वनवासी चलते हैं, जिसके तहत दहकते अंगारों पर महिला, पुरुष, बच्चे नंगे पांव चलते हैं. चूल चलने के पीछे भी मान्यताएं हैं. माना जाता है कि ऐसा करने से बीमारियां दूर रहती हैं.
अंगारों पर चलने की मन्नत को कहते हैं चूल
गल के अलावा जिले में चूल का मेला पेटलावद इलाके में मनाया जाता है. इस दौरान जनजाति समुदाय की भीड़ इन मन्नत को देखने के लिए जमा होती है. कयडावद, रायपुरिया, करवड़ में झूले, चकरी ओर मेले जैसा माहौल रहता है. आदिवासी लोग ढोल बजाते हैं, नाचते और गाते हैं. जिले के कई ग्रामीण क्षेत्रों में गल के साथ ही चूल का पर्व भी मनाया जाता है. चूल में 10 से 20 फिट की खंती बनाई जाती है, जिसमें दहकते अंगारों को डाला जाता है. इन अंगारों पर महिला, पुरुष और बच्चे नंगे पांव चलते हैं.