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जिंदगी की दुश्वारियों में 'जिंदगी' की तलाश, चारों ओर 'समुद्र' के बीच कठौतिया गांव की दास्तां - कठौतिया गांव चारों ओर पानी ही पानी

जबलपुर के बरगी बांध के बैकवॉटर में बसे कठौतिया गांव की जिंदगी बहुत कठिन है. हर चुनाव में मतदान दल इस गांव में स्टीमर से मतदान सामग्री लेकर पहुंचता है. ETV भारत की टीम इस गांव में मतदान के ठीक पहले पहुंची. इस गांव की हालत बहुत ज्यादा खराब है. यहां सड़क मार्ग से नहीं पहुंचा जा सकता. जबलपुर जिले का यह अंतिम गांव सुविधाओं के मामले में भी अंतिम पायदान पर खड़ा है. यह गांव बरगी विधानसभा सीट में आता है. पेश है जबलपुर से विश्वजीत सिंह की स्पेशल रिपोर्ट....

Jabalpur bargi dam Kathoutia settled in backwater
बरगी बांध के बैकवॉटर में बसे कठौतिया के ग्रामीणों की जिंदगी बहुत कठिन

By ETV Bharat Madhya Pradesh Team

Published : Nov 9, 2023, 10:09 AM IST

Updated : Nov 10, 2023, 6:27 PM IST

जबलपुर के बरगी बांध के बैकवॉटर में बसे कठौतिया के ग्रामीणों की जिंदगी बहुत कठिन,

जबलपुर।बरगी डैम किनारे चौड़ाई कहीं 8 किलोमीटर तो कहीं 10 किलोमीटर तक है. यह लगभग 8 से 10 किलोमीटर चौड़ा समुद्र जैसा तालाब महाकौशल इलाके की सबसे बड़ी सिंचाई परियोजना की रीढ़ है. लेकिन इस तालाब की वजह से जहां लाखों लोगों को पानी मिला, सिंचाई मिली. वहीं कुछ लोग इस बांध की वजह से बर्बाद हो गए. बरगी बांध के ठीक पीछे मगरधा पंचायत है. इस पंचायत में कठौतिया नाम का गांव है. इस गांव में लगभग 500 लोग रहते हैं. सामान्य तौर पर एक पंचायत या तो एक ही गांव की होती है और यदि छोटे-छोटे गांव होते हैं तो यह चार-पांच किलोमीटर के दायरे में होते हैं. यहां भी मगरधा और कठौतिया के बीच में मात्र 8 किलोमीटर की दूरी है लेकिन यह दूरी 8 किलोमीटर के 100 फीट गहरे पानी की है, जो बरगी बांध का बैक वाटर है.

समुद्र के बीच बसा है टापूनुमा गांव

कुल 282 मतदाता हैं :कठौतिया में 282 मतदाता हैं. इसमें 130 महिलाएं हैं और 152 पुरुष हैं. यह जबलपुर का अंतिम गांव है. इस गांव के बाद मंडला जिले की सीमा शुरू हो जाती है. बीच में पहाड़ी और जंगल है और यहां से लगभग 40 किलोमीटर दूर मंडला की वीजाडंडी ब्लॉक है. लेकिन गांव के लोग अपने रोजमर्रा के जीवन के लिए वीजाडंडी पर निर्भर नहीं हैं बल्कि वे अपना हॉट बाजार बरगी नगर से करते हैं. वहीं उनकी पंचायत और सरकारी ज़रूरतें भी बरगी नगर में ही आकर पूरी होती है. कठौतिया और उसके दूसरे छोटे गांव तक पहुंचाने के लिए आवागमन का सबसे बड़ा जरिया छोटी नाव है. इन्हीं नावों के जरिए कठौतिया के लोग आना-जाना करते हैं. गांव में ज्यादातर लोग निजी नाव रखे हुए हैं. वहीं कुछ लोगों ने इसे किराए से चलने का कारोबार भी बना लिया है. ये नाव पूरी तरह सुरक्षित नहीं हैं. कठौतिया के रहने वाले अनिल यादव बताते हैं कि गांव के बहुत से लोगों को सार्वजनिक वितरण प्रणाली का राशन मिलता है लेकिन राशन दुकान मगरधा में है और मगरधा से कठौतिया तक राशन ले जाने के लिए इसी छोटी नाव का सहारा लिया जाता है.

नाव का हादसा याद है :बीते दिनों गांव के बहुत से लोगों का इकट्ठा राशन लेकर एक छोटी नाव पर कुछ लोग सवार हुए और नाव को बरगी बांध में उतर गया लेकिन इसके पहले कि वह किनारे लगती तालाब के ठीक बीचोबीच नाव डूब गई और इसमें बैठे हुए तीन लोग भी डूबने लगे. इसी नाव के पीछे गांव की एक दूसरी नाव आ रही थी उन लोगों ने डूबते हुए लोगों को बचाया. अनिल यादव का कहना है कि सरकार को सार्वजनिक वितरण प्रणाली की दुकान उनके गांव में ही खोलने चाहिए. देवकी बर्मन कहती हैं कि सबसे ज्यादा समस्या तो महिलाओं को होती है क्योंकि जब डिलीवरी का समय आता है तो यहां गांव तक एंबुलेंस नहीं आ पाती और नजदीकी अस्पताल बरगी नगर में है. ऐसी स्थिति में तुरंत नाव की व्यवस्था की जाती है और कई बार तो ऐसा हुआ है कि बच्चा नाव में ही हो गया.

नदी पार करके जाना पड़ता है ग्रामीणों को

मौसम खराब हुआ तो आफत :गांव में ही रहने वाली सुमन यादव बताती हैं कि बीमार लोगों के लिए इस पार करना बड़ा कठिन काम है और कई बार मौसम खराब हो जाता है तो लोग इलाज करवाने के लिए नहीं जा आ पाते. इसी गांव के रहने वाले पंचम लाल पटेल की उम्र लगभग 60 साल है. उनका कहना है कि उनकी जिंदगी तो अभाव में कट गई लेकिन आने वाली पीढियां को कम से कम सड़क नसीब हो जाए. इसलिए वह मांग कर रहे हैं कि उनके गांव तक सड़क लाई जाए. पंचम लाल पटेल का कहना है कि इस गांव तक सड़क लाने के लिए कई बार कोशिश से की गई लेकिन यह गांव जबलपुर जिले में आता है और इसके ठीक बाद मंडला जिला शुरू हो जाता है. इसलिए यहां राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं बन पाई. मंडला जिले के नेताओं को इस गांव से कोई मतलब नहीं है और अधिकारी भी यहां सड़क बनाने के पक्ष में नहीं है. जबलपुर से बीजादांडी होते हुए यदि यहां तक सड़क बनाई जाती है तो इस सड़क की लंबाई लगभग 80 किलोमीटर होगी. इसमें कच्चा रास्ता अभी भी है लेकिन मात्र तीन किलोमीटर के रास्ते में वन विभाग अनुमति नहीं दे रहा है. इसलिए कठौतिया तक अभी तक सड़क नहीं पहुंची है.

नेता केवल चुनाव के दौरान आते हैं :पंचम लाल पटेल का कहना है कि नाव के जरिए जिंदगी चल रही है लेकिन बिना सड़क के इस गांव में विकास संभव नहीं है. ऐसा नहीं है कि यहां कोई नेता ना आता हो बल्कि यहां हमें भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस दोनों के ही झंडा लगे हुए मिले. लोगों ने बताया कि कांग्रेस प्रत्याशी संजय यादव के भतीजे यहां आए थे. भारतीय जनता पार्टी की ओर से अभी तक यहां कोई नहीं आया. लोगों का कहना है कि चुनाव में ही लोग आते जाते हैं फिर किसी का कोई पता नहीं रहता. हमें रोहित कुमार यादव मिले रोहित की उम्र 17 साल है रोहित ने नौवीं क्लास में पढ़ाई छोड़ दी थी. यहां ज्यादातर बच्चे नौवीं क्लास के बाद पढ़ाई छोड़ देते हैं क्योंकि गांव में जो स्कूल है वह आठवीं तक है. आठवीं के बाद रोहित ने बताया कि उसने कोशिश की थी और वह बरगी नगर पढ़ने के लिए जाता था लेकिन उसे पहले 6 किलोमीटर नाव चलानी पड़ती थी. यहां एक स्कूल है. इसमें पहले से लेकर आठवीं तक के 25 बच्चों का एडमिशन है. स्कूल में हमें एक शिक्षक सुधीर कुमार यादव मिले. सुधीर जबलपुर से यहां आते हैं. उनका कहना है आने-जाने में उन्हें लगभग 150 किलोमीटर का सफर रोज करना पड़ता है.

तेज हवा छोटी नाव की दुश्मन :कोमल यादव ने बताया कि सबसे ज्यादा समस्या तेज हवाओं से रहती है. जब तेज हवाएं चलती हैं और समुद्र में उनकी छोटी सी डोंगी फंस जाती है तो ऐसा लगता है कि मानो जान चली जाएगी. कई बार भी तेज हवाओं में बीच तालाब में फंसे रहे और यहां उन्हें बचाने के लिए कोई आएगा इसकी कोई संभावना नहीं है. वहीं, कठौतिया में कई घर खंडहर होते हुए दिखे. जिनमे कभी कोई रहता रहा होगा. इनके बारे में जब हमने लोगों से पूछा तो लोगों ने बताया कि बहुत से लोग इन घरों को छोड़कर नई बस्ती में चले गए हैं. हम नई बस्ती भी गए. नई बस्ती में रहने वाले रोहित ने हमें बताया कि वह 2014 में यहां आया था और खाली पड़ी हुई जमीन पर उन्होंने घर बना लिया है. हालांकि अभी उन्हें यह पता नहीं है कि यह जमीन वन विभाग की है या राजस्व की.

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लोग पलायन को मजबूर :ज्यादातर लोगों के पास में घरों के कोई कागजात नहीं हैं. इन लोगों का कहना है कि उन्हें सरकार यदि कोई नजूल की जमीन दे दे तो वे अपने पक्के घर बना लें. यहां कुछ लोगों को तो प्रधानमंत्री आवास योजना का फायदा मिला है उनके पास पट्टे भी हैं लेकिन 75% लोग इसी डर में रहते हैं कि कहीं उन्हें फिर से अपना घर ना छोड़ना पड़े. गांव के बुजुर्ग पंचम लाल पटेल कहते हैं कि चारों तरफ वन विभाग की जमीन है. इसलिए खेती करने का कोई जरिया नहीं है. गांव में रोजगार के नाम पर मनरेगा तक नहीं चलती. बिजली एक बार चली गई तो दो-दो महीने बंद रहती है. ज्यादातर कामकाजी लोग पलायन करने को मजबूर हैं.

Last Updated : Nov 10, 2023, 6:27 PM IST

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