मध्य प्रदेश

madhya pradesh

ETV Bharat / state

पत्थर के कलाकारों की पत्थर सी किस्मत !... बेपटरी हुई जिंदगी - पत्थर कारीगर संजय

जबलपुर के संजय बर्मन मेडिकल कॉलेज की दीवार के पास पत्थर को तराश कर रोजी-रोटी चलाने वाले इन कारीगरों की सुध लेने वाला कोई नहीं है. इनकी जिंदगी लॉकडाउन की वजह से बेपटरी हो गई है. आलम ये है कि सड़क से निकलने वाले लोग कभी-कभी खाने के पैकेट इनको दे जाते हैं.

craftsmen are upsetck
पत्थर सी किस्मत

By

Published : May 31, 2020, 1:25 PM IST

जबलपुर। जिन लोगों के पास चक्की थी, उनके पास खाने के लिए अन्न नहीं था. सिल-बट्टे बनाने वालों के पास नमक तक नहीं था, लॉकडाउन ने पत्थर को सलीका सिखलाने वाले कलाकारों को भी भीख मांगने के लिए मजबूर कर दिया. इन्हें ना तो शासन से राशन मिला और ना ही सहूलियत. यूं तो लॉकडाउन ने सब की कमर तोड़ दी, लेकिन मेहनत मजदूरी करके अपने परिवार का पेट पालने वाले लोग भूखे मरने की स्थिति में आ गए. पत्थर पर कलाकारी करके गृहस्थी की जरूरी चीजें बनाने वाले कारीगर संजय बर्मन मेडिकल कॉलेज की दीवार के पास अस्थायी झोपड़ी बनाकर रहते हैं. संजय पत्थर काटने की कला में माहिर हैं, 50 साल पहले संजय का परिवार ग्वालियर अंचल से जबलपुर आया था, जिसके बाद ये यहीं के होकर रह गए.

पत्थर सी किस्मत

पत्थरों के जानकार

पत्थरों को पहचानने वाले संजय जबलपुर, कटनी, सतना, उमरिया और राजस्थान के पत्थर को छूकर ही बता देते हैं कि किस पत्थर में ज्यादा ताकत है. किस पत्थर को काटकर सिल-बट्टे बनाए जा सकते हैं. कौन सा पत्थर आटा पीसने की चक्की में लगाने के काम आ सकता है. किस पत्थर को काटने से मूर्तियां बन सकती हैं, दवा कूटने के खल को बनाने के लिए किस पत्थर का इस्तेमाल किया जाता है.

कारीगरी

परिवार का मिल रहा है साथ

पत्थरों को तराश कर एक आकार देने वाले कारीगर संजय का परिवार भी उनके काम में साथ देता है. संजय पत्थरों से सामान बनाते हैं और उनका लड़का इसे बेचने का काम करता है, पत्नी भी ऐसी ही उम्दा कलाकार हैं. ऐसे कई संजय पत्थर के माहिर कलाकार हैं. लॉकडाउन के दौरान लोगों के जीने के तरीके भी बदले हैं. लोग मिक्सी के मसालों की बजाए पत्थर पर मसाले पीस रहे हैं.

पत्थर से बना सामान

दो वक्त की रोटी के लिए कश्मकश

पिछले 70 दिनों में इनका पत्थर का बना कोई सामान नहीं बिका है. राहत के नाम पर कोई खिचड़ी दे जाता है, तो कोई खाने के पैकेट. आलम ये है कि घर में आटा की चकिया तो है, लेकिन चक्की में पीसने के लिए दाने की कमी है. संजय जैसे ना जाने कितने परिवार पत्थर के इसी पुश्तैनी काम में लगे हुए हैं. इनका कहना है कि अभी तक इनकी जिंदगी पटरी पर नहीं लौटी है. दिन भर में जो सामान बिकता है, उसी से शाम को राशन खरीदकर घर में खाना बनता है, तब कहीं ये लोग भूख मिटा पाते हैं.

पिता के काम में साथ देती बेटी

नहीं मिलता सरकारी योजना का लाभ

संजय के पास राशन कार्ड नहीं होने के चलते किसी सरकारी योजना का लाभ नहीं मिल पाता है. सड़क किनारे रहने की वजह से इनका कोई एड्रेस तो नहीं है, लेकिन भूख तो इन्हें भी लगती है. ये बड़े मजबूत लोग हैं जो पत्थर की सूरत बदलते हैं, जिंदगी तो फिर भी इनके लिए नरम चीज है. फिर भी ऐसा लगता है कि इनकी किस्मत पत्थर जितनी बेरहम है.

ABOUT THE AUTHOR

...view details