इंदौर। जिले से 55 किमी दूर गौतमपुरा में दीपावली के अगले दिन शाम को हिगोंट युद्ध का आयोजन किया जाता है. इस परंपरागत युध्द में न किसी की हार होती हैं और न किसी की जीत, ये युध्द तो बस परंपरा और भाईचारे के नाम पर लड़ा जाता है. तुर्रा यानी गौतमपुरा और कलगी मतलब रूणजी नाम के दो दल, पुर्वजों से मिली इस परंपरा को आज भी जिंदा रखे हुए हैं.
दीपावली के दूसरे दिन यहां खेला जाता है हिंगोट युद्ध कैसे बनता है हिंगोटहिंगोट, हिंगोरिया नाम के पेड़ पर लगता है, जिसे यहां के लोग जंगल से तोड़कर लाते हैं. हिंगोट नीबू के आकारनुमा फल से बनता है, जो उपर से नारियल के जैसे कठोर होता है, जिसे बाहर से छिला जाता है. उसके बाद एक छोर पर बारीक और दूसरे छोर पर बड़ा छेद किया जाता है. जिसके बाद उसे दो दिन धूप में रखकर सुखाया जाता है. जिसके बाद उसमें बारुद भरकर बड़े छेद को पीली मिट्टी से बंद कर दिया जाता है और दूसरे बारीक छेद पर बारुद की टीपकी लगाई जाती है. हिंगोट पर आठ इंची बास की किमची बांधी जाती है , जिससे निशाना सीधा लगता है.
युद्ध से पहले लेते हैं भगवान देवनारायण का आशिर्वादहिंगोट युध्द के दिन तुर्रा व कलंगी दल के योध्दा सिर पर साफा, कंधे पर हिंगोट से भरा झोला और हाथ मे जलती लकड़ी लेकर दोपहर दो बजे के बाद हिंगोट युध्द मैदान की ओर नाचते-गाते निकल पड़ते हैं. युद्ध शुरु करने से पहले दोनों दल भगवान देवनारायण के मंदिर में दर्शन करते हैं.
घर-घर में बनता था हिंगोटपहले जब प्रशासन की सख्ती नहीं थी, तब गली- मोहल्लों और घरो में हिंगोट तैयार किए जाते थे, पर पिछले 8 सालों से प्रशासन की सक्ती के कारण हिंगोट युध्द मे उतरने वाले योध्दा सीमीत मात्रा मे हिंगोट तैयार कर रहे हैं. वहीं यदि इसके इतिहास की बात करें तो ये परंपरा कब, क्यों और किस लिए शुरु हुई इसके बारे में लोगों को ज्यादा जानकारी नहीं है.