ग्वालियर।सरकारी अस्पतालों में लग्जरी सुविधाओं के अभाव के कारण आम धारणा बन गई है कि यहां चिकित्सा का स्तर निजी अस्पतालों के अच्छा नहीं होता, जबकि सच यह है कि सहूलियत की कमी के तले यहां के चिकित्सकों की काबिलियत दब जाती है, फिर भी ऐसे उदाहरण आ ही जाते हैं कि असाध्य दुर्लभ और अजनबी सी बीमारियों का इलाज आखिर सरकारी अस्पतालों के डॉक्टर के कंधों पर ही आ पड़ता है. शहर के 12 वर्षीय कृष्णा गुप्ता को भी ऐसी बीमारी हुई जो प्रदेश में पहली बार देखी गई. लाखों में एक को होने वाली पोस्ट कोविड सिंड्रोम बीमारी का सफल इलाज जेएस किस टीम ने कर दिखाया.
- लाखों में एक को होने वाली बीमारी से पीड़ित था कृष्णा
विगत अप्रैल में कृष्णा के पिता डॉ. विश्वजीत गुप्ता कोविड-19 पॉजिटिव पाए गए थे. डॉ. गुप्ता ने शेष परिवार का टेस्ट कराया तो पत्नी और बच्चे भी पॉजिटिव निकले. सभी होम आइसोलेशन में ही रहे और इलाज के बाद ठीक हो गए. करीब 1 माह बाद डॉ. विश्वजीत गुप्ता के बेटे कृष्णा को थकान, कमजोरी, हल्का बुखार और पेट के साथ ही सारे शरीर में हल्का सा दर्द बना रहने लगा. इसे साधारण समझ पिता ने कोरोना ठीक होने के बाद के लिए बताई गई कुछ दवाएं प्रारंभिक तौर पर दी. लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ तो वह उसे 19 मई को जयारोग्य अस्पताल समूह के कमलाराजा अस्पताल ले आए. यहां पता चला कि बच्चा दुर्लभ बिमारी पोस्ट कोविड सिंड्रोम बीमारी से पीड़ित था. डॉक्टर आरडी दत्त ने रणनीति बनाकर कृष्णा का इलाज शुरू किया और मात्र 6 दिन में कृष्णा ने एक असाध्य दुर्लभ बीमारी को हरा दिया.
- इलाज के लिए हो जाते लाखों रुपए खर्च
कृष्णा के पिता डॉ. विश्वजीत गुप्ता खुद भी होम्योपैथिक के चिकित्सक हैं. वह समझ गए थे कि उनके बेटे की बीमारी का इलाज जिम्मेदार चिकित्सक के हाथों ही संभव है. निजी अस्पतालों में जाते तो डराकर लाखों रुपए खर्च तो कराए ही जाते, साथ ही इलाज में गंभीरता की भी गारंटी भी नहीं होती. वह सीधे अपने अनुभव और परिचय के सहारे अंचल के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल की शरण में पहुंचे. यहां डॉक्टर दत्त और उनकी टीम ने उनके भरोसे को कायम रखा और उनके बेटे की जान बचा ली.
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- पोस्ट कोविड सिंड्रोम से जीत के बाद मरीज में रह जाते हैं निशान
कोविड संक्रमण खत्म होने के बाद भी फेफड़ों के नाजुक हिस्से को नुकसान पहुंचता है और फेफड़ों में झिल्ली बन जाती है, फेफड़े कम एक्टिव रह जाते हैं. जिससे ऑक्सीजन और कार्बन डाइऑक्साइड एक्सचेंज होना कम हो जाता है. अगर सही तरह से इलाज ना हो, तो जिंदगी भर फेफड़ों संबंधी परेशानी रह सकती है. यह समस्या ज्यादातर 60 साल से अधिक आयु के मरीजों में देखने को मिलती है, लेकिन युवा और बच्चों में भी हो सकती है. कोविड-19 से ठीक हो चुके मरीजों के फेफड़े की धमनियों में ब्लॉकेज हो जाते हैं. जिससे फेफड़े तक खून के संचार में बाधा उत्पन्न हो जाती है. यह बहुत गंभीर समस्या है. समय पर इलाज ना मिलने पर इसके परिणाम घातक हो सकते हैं. बच्चों में यह आगे चलकर मल्टी सिस्टम इनफ्लेमेटरी सिंड्रोम में बदल सकती है. बच्चों में यह कोरोना से ठीक होने के 2-5 सप्ताह में नजर आने लगती है प्रारंभिक तौर पर बच्चों में शाक, दिल और किडनी की कमजोरी पेट के निचले हिस्से एब्डोमेन में दर्द, हल्का बुखार और आंखों में हल्की लालिमा के लक्षण दिखाई देते हैं.