ग्वालियर। संगीत सम्राट तानसेन अकबर के अनमोल नवरत्नों में से एक थे. ग्वालियर का नाम विश्व पटल पर तानसेन के सुर पराक्रम की वजह से ही अमर हुआ है. उनकी याद में हर साल मध्यप्रदेश सरकार तानसेन समारोह का आयोजन करती है. सुरों की इस महफिल में देशभर के कला प्रेमी शामिल होते हैं. ग्वालियर आने वाला हर संगीत प्रेमी तानसेन की समाधि स्थल पर पहुंचकर इमली का पत्ता जरुर खाता है.
तानसेन की समाधि पर लगे इमली के पेड़ की अद्भुत कहानी, पत्ते खाने से सुरीली होती है आवाज - ग्वालियर न्यूज
ऐसा कहा जाता है कि तानसेन अपनी आवाज सुरीली रखने के लिए इमली के पत्ते खाते थे. इसलिए ग्वालियर आने वाला हर संगीत प्रेमी तानसेन की समाधि स्थल पर पहुंचकर इमली का पत्ता जरुर खाता है.

ऐसा कहा जाता है कि तानसेन अपनी आवाज सुरीली रखने के लिए इमली के पत्ते खिलाते थे. यह मान्यता है कि संगीत सम्राट तानसेन की समाधि पर लगे इस इमली के पेड़ में उनकी रूह बसती है. जो भी इस पेड की पत्तियां खाता है उसकी आवाज सुरीली हो जाती है. यही वजह है कि तानसेन की समाधि स्थल पर आने वाले लोग इस पेड की पत्तियां खाते हैं. कई सौ साल पुराना होने के बाद पेड़ गिर गया था. लेकिन यहां के मुअजिन ने इस पुराने पेड़ से निकले नए पेड़ को जिंदा रखा हुआ है. इतिहासकारों का मनाना है कि तानसेन के समाधि पर लगाया इमली का पेड़ मैजिक ट्री है.
ग्वालियर के बेहट गांव में रहने वाले ब्राहाम्ण परिवार में तानसेन का जन्म हुआ था. यह परिवार बच्चे के लिए परेशान हो गया था और मोहम्मद गोस ने इस परिवार पर अपना रहमो करम दिखाया और तानसेन ने इस परिवार में जन्म लिया. लेकिन पांच वर्ष की उम्र में तानसेन के सिर से माता- पिता का साया उठ गया. तानसेन बकरी चराते और गांव वालों से मिलने वाले खाने को खाते थे. तभी मोहम्मद गोस ने उनको सहारा दिया. प्रारंभ में तानसेन किसी से कुछ नहीं बोलते थे. लेकिन मोहम्मद गोस ने उनको अपना शिष्य बनाया और उनको सुरो की तालीम दी. उस समय ग्वालियर किले पर वह संगीत विद्यालय में मोहम्मद गोस से तालीम लेते थे. लेकिन समय के साथ- साथ तानसेन के सुरों की लय इतनी बुलंद हो गई कि मुगल शासक अकबर ने उन्हें अपने नौ रत्नों में शुमार कर लिया.