ग्वालियर। 20वीं शताब्दी की शुरुआत में ग्वालियर क्षेत्र अकाल की चपेट में था और जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित भी. तब रियासत के महाराजा माधोराव सिंधिया ने इस क्षेत्र के विकास के लिए रेलवे के जरिए दूसरे क्षेत्रों से जोड़ने का विचार किया, ताकि सेना, यात्री और सामान को आसानी से एक जगह से दूसरी जगह ले जाया जा सके. तब श्योपुर कलां सिंधिया राज्य की ग्रीष्मकालीन राजधानी हुआ करती थी. यह प्रोजेक्ट चार चरणों में पूरा हुआ.
ग्वालियर से जौरा तक परियोजना का पहला चरण जनवरी 1904 तक पूरा हो गया था. जौरा से सबलगढ़ तक दूसरा चरण दिसंबर 1904 तक पूरा हो गया था. तीसरा चरण सबलगढ़ से बीरपुर तक पूरा हुआ. इसके तैयार होने में वर्षों लग गए, जिसमें कुनू नदी पर बने पुल का इंजीनियरिंग कार्य भी शामिल है. यह मार्ग नवंबर 1908 में खोला गया था, जबकि प्रस्तावित ट्रैक का चौथा और अंतिम भाग जून 1909 तक उपयोग के लिए तैयार हो गया था. ट्रैक बिछाने में कुल 1.872 मिलियन रुपए की लागत आई थी. इस ट्रेन से जुड़े विशेष कोच का उपयोग महाराजा और उनके अधिकारियों द्वारा शिकार और कर (लगान) संग्रह के दौरान यात्रा करने के लिए किया जाता था.
नैरोगेज ट्रैक पर रोजाना पांच ट्रेनें दौड़ती थी. सुबह छह बजे एक ट्रेन ग्वालियर से और दूसरी श्योपुर से चलती थी. करीब 11 घंटे में ट्रेन रोजाना 198.5 किमी की दूरी तय करती थी. बाकी की तीन ट्रेनें दिन में आधे रूट को कवर करती थी, एक ट्रेन के कोचों की कुल संख्या छह से सात के बीच होती थी. बी-श्रेणी के 14 और डी-श्रेणी के 14 स्टेशनों को मिलाकर कुल 28 स्टेशन थे, जहां पर ट्रेनों का ठहराव होता था. रेलवे रूट पर कुल 322 पुल हैं, जिसमें 8 प्रमुख पुल भी शामिल हैं, इनमें से कुछ पुलों का निर्माण पीडब्ल्यूडी और रेलवे के साझा सहयोग से कराया गया है. ट्रेन की अधिकतम गति सीमा 50 किमी/घंटा थी और एक बार में 630 लीटर डीजल भरकर चलती थी, जिसमें 33-34 किलोलीटर प्रति माह के हिसाब से ईधन की खपत होती थी.
छोटी लाइन की बड़ी कहानी भाग-2: जब मध्य भारत का सपना थी रेल! तब सिंधिया राज में चली 'छुक-छुक'