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Guna News: होली पर आराध्य देवता के प्रति समर्पण दिखाने की अनूठी परंपरा, जानें क्या है 'गल' - Guna News

गुना के आदिवासी समाज में होली के दिन अपने आराध्य देवता के प्रति समर्पण दिखाने की परंपरा है. इस अनूठी परंपरा में आदिवासी समाज के लोग मन्नत पूरी होने पर खुद को रस्सी से बांधकर मचान के चारों ओर हवा में चक्कर लगाते हैं.

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आदिवासियों की अनूठी परंपरा

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Published : Mar 9, 2023, 11:09 PM IST

गुना।आदिवासी परंपरा में 'गल' यानी मचान का बेहद धार्मिक महत्व है. आदिवासियों की आस्था के केंद्र गल को न केवल पूजा जाता है, बल्कि मन्नत पूरी होने के बाद श्रद्धालुओं को लकड़ी पर बंधी रस्सी के सहारे झुलाया जाता है. ये परंपरा बमोरी तहसील के सिरसी क्षेत्र के नगदा गांव में पूरे भक्तिभाव से निभाई जाती है.

गला क्या होता है:ग्रामीण इलाकों में लकड़ी से बना एक मचान होता है, जिसका उपयोग खेतों की रखवाली के लिए किया जाता है. आदिवासियों की पारंपरिक भाषा में इसी मचान को गल कहा जाता है. आदिवासी परंपराओं में इस "गल" का विशेष महत्व है. परेशानियों और दुःखों से जूझ रहे लोग अपने इष्ट बाबादेव के नाम पर मन्नत मांगते हैं. इस उम्मीद में कि अगली होली तक उनके दुःख दूर हो जाएंगे.


ढोल मांदल की थाप पर भील नृत्य:होली पर धार्मिक परम्पराओं का यही गल जीवंत हो उठता है. गल के चारों ओर मेला भरता है. हजारों लोग इकट्ठे होते हैं. जिनकी मन्नतें पूरी हो जाती हैं, वे सजधज कर गांव वालों के साथ आते हैं. ढोल मांदल की थाप पर भील नृत्य शुरू किया जाता है. मन्नत पूर्ति होने के बाद व्यक्ति गल पर चढ़ता है. गल पर लकड़ी में बंधी हुई रस्सी के सहारे आस्थावान व्यक्ति को हाथों से बांधकर मन्नत के अनुसार तीन, पांच या सात बार घुमाया जाता है. इसका अर्थ है कि बाबादेव से जो पाया है, वह उन्हीं के चरणों में समर्पित कर दिया.

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आज तक कोई हादसा नहीं:आदिवासी परंपरा का वर्षों से निर्वहन कर रहे लोग बताते हैं कि ऐसी आस्था को लेकर सवाल भी किए जाते हैं. जैसे कि मान लो कि मन्नत पूरी न हो तो उसके बदले में जवाब होता है कि मन्नतें पूरी होती ही हैं. यदि झुलाते वक्त रस्सी खुल जाए और दुर्घटनावश व्यक्ति गिर जाए तो..इसका उत्तर होता है कि बड़े-बुजुर्गों की कहानियों और लोगों की आंखों-देखी में तो ऐसा कभी हुआ ही नहीं.

आदिवासियों की आस्था का केंद्र:आदिवासी अंचल में 8 दिन का जश्न भगोरिया से शुरू हुआ था, जो गल देव पर मन्नतें उतारने के साथ पूरा होता है. बच्चों से लेकर बुजुर्गों की मुस्कान का ये उत्सव अगले साल फिर आएगा. गल और बाबादेव के आशीर्वाद के बाद आदिवासी अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में लौट जाएंगे, जिसमें उतार भी होंगे और चढ़ाव भी, तब तक कि अगला भगोरिया न आ जाए. रणविजय भुरिया बताते हैं. "गल बाबाजी आदिवासियों की आस्था का केंद्र हैं. होली के दिन यहां पारंपरिक भगोरिया उत्सव मनाया जाता है. आदिवासी मन्नत पूरी होने के बाद समर्पण भाव से रस्सी पर झूलते हैं."

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