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रानी अवंती बाई का समाधि स्थल उपेक्षा का शिकार,लोगों ने की ध्यान देने की अपील

देश की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाली वीरांगना रानी अवन्ती बाई का बलिदान स्थल उपेक्षा का शिकार हो रहा है.

वीरांगना रानी अवन्ती बाई

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Published : Sep 21, 2019, 11:32 AM IST

डिंडौरी। जिस देश की रक्षा के लिए वीरांगना रानी अवन्ती बाई ने अपने प्राणों को खुशी खुशी न्यौछावर कर दिया था आज उसी रानी अवन्तीबाई का समाधि स्थल उपेक्षा का शिकार हो रहा रहा है. समाधि स्थल पर न कोई सुरक्षा है और किसी अन्य प्रकार की सुविधा.

रानी अवन्ती बाई का बलिदान स्थल उपेक्षा का शिकार

पर्यटक महेश कुमार सिंह बताते हैं कि यह स्थल उपेक्षा का शिकार हो रहा है. सरकार को चाहिए कि यहां एक सुरक्षा गार्ड, गाइड और अन्य सुविधा की व्यवस्था होनी चाहिए. जिससे यहां आने वाले पयर्टकों को परेशानियां न उठानी पड़े.

प्रदेश सरकार को रानी अवन्ती बाई की कथा को फैलाने के लिए प्रचार प्रसार करना चाहिए. जिससे देश ही नहीं बल्कि विदेशों से भी रानी अवन्ती बाई के बलिदान को जान सके.
मध्यप्रदेश सरकार को इस ओर ध्यान देने की खासी जरुरत है. कमलनाथ सरकार में मंत्री ओमकार सिंह मरकाम डिंडौरी जिले से आते हैं. मंत्री को बालपुर स्थित रानी के समाधि स्थल पयर्टन को बढ़ावा देना चाहिए.

बता दें कि देश की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहूति देने वाली वीरांगना रानी अवन्ती बाई बलिदान स्थल डिंडौरी जिले के शहपुरा विधानसभा क्षेत्र से दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. वीरांगना रानी अवन्ती बाई के बलिदान ने डिंडौरी जिले का नाम रोशन किया है.

अंग्रेजों से लोहा लेते समय हुई वीरगति को प्राप्त

रानी अवंती बाई मनखेड़ी का जन्म सिवनी में 16 अगस्त 1831 को राव जुझार सिंह के यहां हुआ था. उनका विवाह रामगढ़ के राजा लक्ष्मण सिंह के सुपुत्र कुंवर विक्रमादित्य के साथ हुआ था. विक्रमादित्य की अल्पायु में मृत्यु होने के बाद रानी अवंती बाई ने रामगढ़ राज्य की बागडोर अपने हाथों में ली.

सन् 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में मंडला के डिप्टी कमिश्नर अंग्रेज अफसर वाडिंगटन ने मंडला के महाराज शंकरशाह और उनके पुत्र रघुनाथ शाह को जबलपुर में तोप से उड़ा देने का हुक्म सुनाया था. जिसके बाद वीरांगना रानी अवंती बाई ने क्रोधित होकर क्रांति का शंखनाद करते हुए देश के लिए मर मिटने के लिए स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़ी.

रानी अवंती बाई ने कैप्टन वाशिंगटन को दो बार पराजित किया लेकिन तीसरी लड़ाई में देवहारगढ़ के जंगल में अंग्रेजों से लोहा लेते रामगढ़ की ओर बढ़ी और बालपुर के पास अंग्रेजों से चारों तरफ से घिर गई तब उन्होंने अपनी आन बान शान को बनाए रखने के लिए उन्होंने खुद के पेट में कटार मार लिया और 20 मार्च 1818 को बालपुर नदी के पास वीरगति को प्राप्त हुई.

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