दतिया। नवरात्रि आते ही देवी मंदिरों में भक्तों का तांता लग जाता है. मां का प्यार और आस्था दूर-दूर से भक्तों को अपने पास दर्शन को बुला लेती हैं. ऐसा ही प्रसिद्ध मंदिर है मध्यप्रदेश के दतिया जिले में, जहां स्थित विंध्याचल पर्वत पर रतनगढ़ वाली माता विराजी (Ratangarh Wali Mataji) हैं. इस शारदेय नवरात्रि में जानिए रतनगढ़ वाली माता की मान्यता और इतिहास कि आखिर क्यों भक्त मां के दर्शनों के लिए खिचे चले आते हैं.
मंदिर का इतिहास है बहुत पुराना
प्रसिद्ध रतनगढ़ माता के मंदिर (History of Ratangarh Temple) का इतिहास काफी पुराना है. यह मंदिर मध्य प्रदेश के दतिया जिले से 63 किलोमीटर दूर मर्सैनी गांव के पास स्थित है. बीहड़ इलाका होने की वजह से यह मंदिर घने जंगल में पड़ता है. इसके पास से ही सिंध नदी (Sindh River) बहती है. यहां अपनी मन्नतों की पूर्ति के लिए आने वाले श्रद्धालु दो मंदिर के दर्शन करते हैं. इनमें एक मंदिर है रतनगढ़ माता का और दूसरा कुंवर बाबा का मंदिर है. भाई दूज के साथ-साथ नवरात्र में भी हर साल लाखों की संख्या में श्रद्धालु यहां माता के दर्शन के लिए आते हैं.
बाढ़ में बह गया पुल, फिर भी दर्शन को पहुंच रहे भक्त
इस साल सितम्बर माह में आयी सिंध नदी में बाढ़ के चलते सिंध नदी पर बना हुआ पुल बह जाने से श्रद्धालुओं के पहुंचने की व्यवस्था प्रभावित हुई. यह रास्ता दतिया, झांसी और बुंदेलखंड के अन्य जिलों के भक्तों के मंदिर पहुंचने का सबसे सुगम मार्ग था, लेकिन माँ रतनगढ़ वाली माता के भक्तों के लिए यह अवरोध भी आड़े नहीं आया. इस साल श्रद्धालु ग्वालियर से होते हुए भी दर्शन को पहुंच रहे हैं.
कैसे अस्तित्व में आयीं माता
बताया जाता है कि रतनगढ़ के राजा रतन सिंह (Raja Ratan Singh) के सात राजकुमार और एक पुत्री थी. वह पुत्री अत्यन्त सुन्दरी थी. उसकी सुन्दरता के चर्चों से आकर्षित होकर अलाउद्दीन खिलजी (Alauddin Khilji) ने उसे पाने के लिए रतनगढ़ पर धावा बोल दिया. दोनों के बीच घमासान युद्ध हुआ जिसमें रतन सिंह और उनके छः पुत्र मारे गये. सातवें पुत्र को बहन ने तिलक कर तलवार देकर रणभूमि में युद्ध के लिए विदा किया. युद्ध के दौरान राजकुमार के दोनों हाथ कट गए. जिसकी वजह से वे शाम होने पर ध्वज नही फहरा सके. जब रणभूमि से राजकुमार का झंडा नही लहराया गया, तो राजकुमारी ने सोचा कि उनका भाई भी युद्ध में नहीं रहा. यह सोचकर उन्होंने माता वसुन्धरा से अपनी गोद में स्थान देने की प्रार्थना की. जिस प्रकार सीता जी के लिए पृथ्वी माता ने शरण दी थी. उसी प्रकार राजकुमारी के लिए भी पहाड़ के पत्थरों में एक दरार दिखाई दी. इन दरारों में ही राजकुमारी समा गईं. उसी राजकुमारी को मां रतनगढ़ वाली माता के रूप में पूजा जाता है. साथ ही उनका जो राजकुमार भाई भी आखिर में युद्ध में शहीद हुआ. उनकी पूजा भी कुंवर बाबा के रूप में होती है.
विष पर बंधन लगा देते हैं कुंवर बाबा
मान्यताओं के अनुसार कुंवर बाबा (Kunwar Baba) रतनगढ़ वाली माता के भाई हैं, जो अपनी बहन से बेहद स्नेह करते थे. कहा जाता है कि कुंवर महाराज जब जंगल में शिकार करने जाते थे, तब सारे जहरीले जानवर अपना विष बाहर निकाल देते थे. इसीलिए जब किसी इंसान को कोई विषैला जानवर काट लेता है तो उसके घाव पर कुंवर महाराज के नाम का बंधन लगाते हैं. इसके बाद इंसान भाई दूज या दिवाली के दूसरे दिन कुंवर महाराज के मंदिर में दर्शन करता है.