छिंदवाड़ा। देश में बावड़ियों के निर्माण और उपयोग का एक लंबा इतिहास रहा है. संस्कृत के प्राचीन साहित्य में इसके कई नामों का उल्लेख हैं, जिसमें वापी, दीर्घा प्रमुख है, लेकिन आज के दौर में इन प्राचीन जल स्त्रोतों को आम बोलचाल में बावड़ी बोला जाता है. हिंदुस्तान में जल प्रबंधन की परंपरा प्राचीन काल से रही हैं. जल प्रबंधन के अवशेष हमें हड़प्पा कालीन सभ्यता में मिलते हैं. पूर्व मध्यकाल और मध्यकाल में जल सरंक्षण का परम्परा विकसित हो चुकी थी.
ऐसी ही एक ऐतिहासिक विरासत छिंदवाड़ा के देवगढ़ में मौजूद है. 16वीं शताब्दी में गोंड राजाओं के द्वारा बनाई गई सैकड़ों बावड़ियों को सहेजने का काम शुरू हो गया है. देवगढ़ गोंड राजाओं की राजधानी हुआ करती थी. उसी दौरान राजाओं ने यहां सैकड़ों कुएं और बावड़ियों का निर्माण कराया था, ताकि राज्य में बारिश की एक एक बूंद को संजोया जा सके. लेकिन आधुनिकता के दौर में इन प्राचीन धरोहरों पर लोगों ने कोई ध्यान नहीं दिया, जिसके कारण ये बावड़ियां अपना अस्तित्व खोती गईं और ये खंडहर में तब्दील हो गईं.
इन ऐतिहासिक बावड़िया को जिला प्रशासन और ग्राम पंचायतें मिलकर दोबारा संरक्षित कर रही हैं. देवगढ़ में 900 बावड़ियां और 800 कुएं तत्कालीन शासकों ने बनवाए थे, अभी तक 48 बावड़ियां और 12 कुओं की खोज की जा सकी है, जिनमें से 21 बावड़ियों के जीर्णोद्धार का काम शुरू हो चुका है.
एक करोड़ से ज्यादा की लागत से कराया जा रहा है जीर्णोद्धार का काम