छतरपुर। रोटी के लिए रोजगार चाहिए या फिर आधार चाहिए, पर ये वो बदनसीब हैं, जिसके पास न तो रोजगार है और न ही आधार, ये बिल्कुल निराधार हैं. जिसके सिर पर छत के नाम पर काली पन्नी है. जो आधारहीन होता है, उसकी किसी को जरूरत भी नहीं होती, फिर भी ये जरूरी है वोट देने के लिए, बस पांच साल में एक बार ही याद आते हैं. गरीबी की चादर ओढे़ ये उस लाचार की कहानी है, जिसके पास न तो रहने के लिए घर है और ना ही खाने के लिए खाना. बेरोजगारी के चलते बुंदेलखंड से ज्यादातर मजदूर अपने गांव से अन्य राज्यों के लिए पलायन कर जाते थे, लेकिन अब ये मजदूर कोरोना महामारी की वजह से गांव वापस आ चुके हैं. छतरपुर से 17 किलोमीटर दूर एक छोटे से गांव कर्री में रहने वाला एक आदिवासी परिवार भी कुछ इसी तरह की परेशानी से जूझ रहा है.
मुश्किल से मिलती है दो वक्त की रोटी
गांव में रहने वाले कमला आदिवासी ने कहा कि वे एक छोटे से टपरे में पिछले कई सालों से रह रहे हैं. परिवार में पत्नी और एक 10 साल का बेटा है. उन्होंने कहा कि उन्हें मुश्किल से दो वक्त की रोटी मिलती है. जब खाने को कुछ नहीं रहता तो दूसरों से मांगकर पेट भरते हैं. झोपड़ी इतनी छोटी है कि उसके अंदर खड़े भी नहीं हो सकते, बरसात के दिनों में झोपड़ी के बाहर ही रहना पड़ता है. कमला ने कहा कि उसके पास ना तो राशन कार्ड है और ना ही गांव के सरपंच और सचिव ने उनकी किसी प्रकार की मदद की है.