भोपाल।रविंद्र भवन में चल रहे अंतरराष्ट्रीय महोत्सव में कई कलाकारों ने अपनी प्रस्तुतियां दी. आदिवासी कलाकारों का कहना था कि जब से ऑनलाइन प्रक्रिया शुरू हुई है तब से इनके जीवन में बदलाव हुआ है और आदिवासियों के समस्याओं का निराकरण हुआ है. अन्य कलाकारों ने भी अपनी बात कही. रविंद्र भवन में शुरू हुए अंतरराष्ट्रीय साहित्य महोत्सव उन्मेषा में जनजातीय कवि सम्मेलन में गोंडी, मिजो, खासी, देसिया, कैकाडी और तिवा कवियों ने अपनी रचनाएं प्रस्तुत कीं.
सामाजिक लोकतंत्र:महाराष्ट्र के लेखक शरण कुमार लिंबाले का मानना है कि मणिपुर की हालिया घटनाएं बताती हैं कि हम अभी भी कई मायनों में आजाद नहीं हैं. हम जाति से मुक्त नहीं है और भारत में कोई सामाजिक लोकतंत्र नहीं है. लिंबाले अंतरराष्ट्रीय साहित्य महोत्सव उन्मेषा के उद्घाटन दिवस पर विषय मेरे लिए स्वतंत्रता का क्या मतलब है, पर बोल रहे थे. यहां ओडिशा से आए बद्री नायरन ने कहा कि कोई सार्वभौमिक स्वतंत्रता नहीं है. कैसे वैश्वीकरण हमारी रचनात्मकता को खत्म कर देता है.
सबसे बड़ी मुक्ति: लेखक मृतुंजय सिंह ने अपनी बात रखते हुए कहा कि मन से मुक्ति ही सबसे बड़ी मुक्ति है. लेखक अर्जुन देव चरण ने कहा कि भाषा की स्वतंत्रता होनी चाहिए. पश्चिम मानता है कि भारत की ज्ञान परंपरा समृद्ध और प्राचीन है. स्पेन, फिजी, जापान, पोलैंड और नेपाल के लेखकों ने 'वैश्विक दुनिया के लिए वैश्विक साहित्य' विषय पर एक सत्र में बात की. सत्र की अध्यक्षता श्रीलंका के अशोक फेरे ने की.
ऑनलाइन से आसान हुई आदिवासियों की जिंदगी:सरकार की ओर से कई योजनाएं आदिवासियों के लिए चलाई जा रही हैं. पहले इन योजना का लाभ इन्हें नहीं मिल पाता था. दलाली में पैसा देना पड़ता था. गांव के दबंग लोग कगजों पर आगूंठा या दस्तखत कराकर सब कुछ हड़प लेते थे लेकिन ऑनलाइन सुविधाओं के कारण अब हमें अपना हक मिल रहा है. यह कहना है झारखंड से राष्ट्रीय उत्सव में शामिल होने आए मुकेश मातो का. उन्होंने अपने ग्रुप के साथ यहां छऊ नृत्य की प्रस्तुति दी.