भोपाल। शायर को रोटी चांद नजर आती है, सियासी दलों को रोटी में दिखाई देता है वोट. आम आदमी के लिए रोटी पूरे दिन की मशक्कत का मेहनताना है, लेकिन हवा में लहराते बलखाते बढ़ती तवे पर चढ़ती ये रोटी ईदुज्जुहा के आस-पास भोपाल जैसे शहर में ख्वाहिश बन जाती है कि अगर दावत में ये हवा हवाई रोटी नहीं खाई तो क्या खाया. तो बाजारों में कुल 3 दिन की मेहमान ये रोटी ईदुज्जुहा के आस-पास भोपाल के बाज़ारों में उतरती है और हवाई रोटी हाथों हाथ जाती है. हुनरमंद कारीगरों को जब ये रोटी बनाते देखेंगे आप तो हैरत में पड़ जाएंगे कि हाथों में लहराता ये कपड़ा है या रोटी.. इस हवाई का रोटी का नाम भी सुन लीजिए, इसे मांडा कहते हैं.
हवाई रोटी मांडा आई कहां से:इसे 'आवश्यकता ही अविष्कार की जननी' वाला मामला कहा जा सकता है, वो इसलिए कि ईदुज्जुहा के बाद होने वाली दावतों के लिए घरों में सालन तो भरपूर होता है, लेकिन रोटियां कहां से आएं? तो मुमकिन है कि थोक के भाव में बनने वाली रोटियों का रास्ता हवाई रोटी तक पहुंचा हो.. खैर जरुरत से शुरू हुई बात रवायत तक पहुचं गई ईदुज्जुहा भोपाल जैसे शहरों में. 3 दिन का त्योहार होता है और 3 दिन की दावतों और मुबारकों के बीच एक खासियत होती है मांडा की रोटी की. शहर के अलग-अलग हिस्सों में मांडे के ठेले सज जाते हैं और सुबह से देर शाम तक चलने वाले इन ठेलों पर पूरे दिन इन मांडे के चाहने वालों का रेला रहता है.