भोपाल। बाबूलाल गौर के निधन से मध्यप्रदेश की सियासत में एक युग का अंत हो गया. एक ऐसी शख्सियत जिसकी पहचान देशभर में केवल एक नेता के तौर पर नहीं बल्कि जननेता के तौर पर होती थी. वे जितने अपनो के करीब थे उतने ही विरोधियों के भी क्योंकि यह नेता मध्यप्रदेश की राजनीति का एक युगपुरुष था. जिसके ईर्द-गिर्द मध्यप्रदेश की सियासत का एक पूरा अध्याय लिखा गया.
2 जून 1930 को उत्तरप्रदेश के प्रतापगढ़ जिले के नेनगिरी गांव में जन्में बाबूलाल गौर अपने पिता के साथ भोपाल के पुठ्टा मिल में काम करने आए थे, जहां उन्हें भेल (भारतीय हेवी इलेक्ट्रिक लिमिटेड) में नौकरी मिल गई. भेल में बाबूलाल गौर मजदूरों की आवाज बन गए. इस दौरान उन्होंने कई श्रमिक आंदोलनों में भाग लिया था. शुरुआती दिनों में वे आरएसएस की शाखा में जाया करते थे. जबकि ट्रेड यूनियनों में उनकी सक्रियता रहती थी. देखते ही देखते वे मजदूरों के सबसे बड़े नेता बनकर उभरने लगे.
बाबूलाल गौर ने अपनी राजनीति की पहली पारी साल 1972 में खेली लेकिन उन्हें हार का सामना करना पड़ा. 1974 में दोबारा भोपाल की गोविंदपुरा सीट से उपचुनाव में मैदान में उतरे और जीत हासिल की. लेकिन ये महज एक जीत नहीं थी. बल्कि एक ऐसी शुरुआत थी जो अब तक उस सीट पर चली आ रही है. साल 1975 में जेपी आंदोलन में बाबूलाल गौर खूब एक्टिव रहे. जेल भी गए. धीरे-धीरे वे जयप्रकाश नारायण के करीब भी पहुंच गए. जबकि जनसंघ में कुशाभाऊ ठाकरे से लेकर पूर्व पीएम अटल बिहारी वाजपेयी के वे सबसे करीब लोगों में गिने जाते थे.