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एमपी की सियासत में कास्ट फैक्टर क्यों है हावी, किस पार्टी का कहां है दबदबा,2018 के चुनाव से बीजेपी ने क्या सीखा सबक? - एमपी की सियासत में कास्ट फैक्टर क्यों है हावी

एमपी की सियासत में कास्ट फैक्टर हावी है.जातियों की सियासी समीकरण की बात की जाए तो प्रदेश के लिए यह कोई नयी बात नहीं है लेकिन इतना तो तय है कि जिस पार्टी ने इस समीकरण को नहीं समझा वह सत्ता की सीढ़ी तक नहीं पहुंच सकती. 2018 के चुनाव में एससी और एसटी सीटों को लेकर भाजपा को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा था.सियासी समीकरण को लेकर देखिए ये खास रिपोर्ट.

MP Elections 2023
एमपी का जातिगत समीकरण

By ETV Bharat Madhya Pradesh Team

Published : Nov 17, 2023, 9:46 AM IST

जब-जब भी देश में चुनाव की बात होती है तो सबसे पहले बात होती है जातियों की. सियासत में जातियों का समीकरण कोई नया नहीं है लेकिन पिछले कुछ सालों में सभी राजनैतिक दल जातिगत आधार पर ही अपनी सियासत सजाते हैं. मध्य प्रदेश की राजनीति में भी जातिगत फैक्टर विशेष मायने रखता है. चुनाव में टिकट वितरण से लेकर मंत्रिमंडल बनने तक इसी फार्मूले पर काम किया जाता है. जानकार कहते हैं कि यदि कोई दूसरा फैक्टर काम करता है तो वह है धर्म. यानि एमपी की पूरी सियासत की धुरी भी जाति और धर्म के आसपास ही घूमती है.

एमपी की सियासत में जातियों की सोशल इंजीनियरिंग:सियासत में जातियों की सोशल इंजीनियरिंग मध्य प्रदेश में भी हावी है. कहते हैं कि यहां जिस क्षेत्र में जिस वर्ग का दबदबा है उसी समाज का विधायक वहां से चुना जाता है. हालांकि कुछ सीटों पर यह फार्मूला फिट नहीं बैठता. एमपी में जातियां ही तय करती हैं कि किस पार्टी की यहां सरकार बनेगी. ब्राह्मण,राजपूत,लोधी,कुशवाहा और यादव समाज का दबदबा यहां की राजनीति में तेजी से बढ़ा है. एमपी की 230 विधानसभा सीट में से लगभग 100 सीटों पर इन जातियों का वर्चस्व है. साथ ही अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का भी अहम रोल है.

2018 चुनाव: एमपी का जातिगत समीकरण

एमपी की राजनीति का जातिगत समीकरण: जानकारी के अनुसार राज्य में एसटी यानि अनुसूचित जनजाति की आबादी लगभग 21 प्रतिशत और एससी यानि अनुसूचित जाति की आबादी लगभग 16 प्रतिशत है.ओबीसी यानि पिछड़ा वर्ग की आबादी करीब 50 फीसदी है. प्रदेश में करीब 45 लाख ब्राह्मण वोटर हैं, जो कुल वोट बैंक का करीब 10% है. राजपूत समाज की आबादी करीब 65 लाख है वहीं कुशवाहा समाज के लोगों की आबादी करीब 80 लाख है. साथ ही 50 लाख से अधिक मुस्लिम वोटर्स हैं.

किस समाज का कितनी सीटों पर दबदबा

एससी-एसटी सीटों पर सबसे ज्यादा फोकस: एमपी में अनुसूचित जनजाति की 47 और अनुसूचित जाति की 35 सीटें आरक्षित हैं. कुल विधानसभा की 230 में से 82 सीटें एससी और एसटी के लिए रिजर्व हैं. वर्तमान में अनरिजर्वड 146 सीटों में से 60 पर ओबीसी विधायक हैं. राज्य में ओबीसी की आबादी 50 फीसदी के करीब है.

आदिवासी वर्ग को साधने की कोशिश:एमपी में चुनाव प्रचार के दौरान पीएम नरेंद्र मोदी अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़ी जातियों पर फोकस करते दिखे. पीएम मोदी ने अपने भाषणों में कई बार ये दोहराया है कि हमारी सरकार आज देश में गरीब कल्याण की जितनी भी बड़ी योजनाएं चला रही है, उसका सबसे अधिक लाभ दलित, पिछड़ा और आदिवासी समाज को हो रहा है. दरअसल, इन जातियों पर फोकस करने की बड़ी वजह प्रदेश का सियासी समीकरण है जो कई सीटों पर सीधे प्रभाव डालता है.

2018 के चुनाव में एससी और एसटी फैक्टर: एमपी में अनुसूचित जाति के वोटर्स को बीजेपी का कोर वोटर माना जाता है. लेकिन 2018 में कांग्रेस ने इसमें बड़ी सेंधमारी की थी. कांग्रेस 15, बीजेपी 18 और दो पर बीएसपी ने जीत हासिल की थी. जबकि 2013 में कांग्रेस को तीन, बीएसपी को चार और बीजेपी को 28 सीटों पर जीत मिली थी. वहीं 2018 में अनुसूचित जनजाति की 47 में से बीजेपी को 16 तो कांग्रेस को 30 सीटों पर जीत मिली थी. जबकि 2013 में बीजेपी को 31 और कांग्रेस को 15 सीटें मिली थीं. मतलब 2018 में कांग्रेस को 15 सीटों का फायदा हुआ था.

एमपी में ओबीसी का दांव कितना कारगर: राज्य पिछड़ा वर्ग कल्याण आयोग की रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश में लगभग 50 प्रतिशत मतदाता पिछड़ा वर्ग के हैं. विंध्य, बुंदेलखंड और महाकौशल अंचल में पिछड़े वर्ग के मतदाताओं की कई विधानसभा क्षेत्रों में अहम भूमिका है. इस बार भाजपा और कांग्रेस ने ओबीसी वर्ग के प्रत्याशियों को टिकट दिया है. कांग्रेस के ओबीसी दांव को फेल करने के लिए भाजपा ने ओबीसी वर्ग से 66 प्रत्याशियों को टिकट दी है. वहीं कांग्रेस ने 62 ओबीसी प्रत्याशियों को टिकट दिया है. मध्यप्रदेश में 70 से ज्यादा विधानसभा क्षेत्रों में ओबीसी मतदाता निर्णायक भूमिका में हैं. कई क्षेत्रों में कुर्मी पटेल तो कहीं यादव तो कहीं लोधी और किरार समाज का अहम रोल है.

कांग्रेस ने 2018 में सामान्य सीटों पर 40 प्रतिशत ओबीसी को टिकट दिया था, जबकि बीजेपी ने 39 प्रतिशत लोगों को दिया था. बीजेपी के 38, कांग्रेस के 21 और एक निर्दलीय ओबीसी विधायक हैं.

जातियों का रोल कितना अहम:एमपी में 230 विधानसभा सीटों में से लगभग 190 सीटों पर जाति आधारित वोटर्स सबसे बड़ा फैक्टर है. एक अनुमान के मुताबिक मध्यप्रदेश में 65 से 70 प्रतिशत वोटर्स जातियों के आधार पर वोट करते हैं. इसके बाद बचे हुए मतदाता अपने क्षेत्र में प्रत्याशी की छवि और विकास का पैमाना देखते हैं. ब्राह्मण, राजपूत, लोधी, कुशवाहा और यादव समाज एमपी की 230 विधानसभा सीट में से लगभग 100 सीटों पर इन जातियों का वर्चस्व है और ये जातियां भी सरकार का समीकरण बनाती और बिगाड़ती हैं. राजपूत समाज की बात की जाए तो उनकी यहां करीब 65 लाख की आबादी है. प्रदेश की 230 सीटों में से 34 सीटों पर इस समाज के विधायक हैं और राजनीतिक दबदबा रखते हैं. पिछले कुछ विधानसभा चुनावों में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व घटा है. 2018 में कांग्रेस से आरिफ अकील और आरिफ मसूद भोपाल से चुनाव जीते थे. लेकिन कहा जाए तो मुसलमान मतदाता कई सीटों पर चुनाव परिणाम पर प्रभाव डालते हैं.

किस जाति का कहां सबसे ज्यादा असर: MP में कुशवाहा समाज के लोगों का ग्वालियर-चंबल और बुंदेलखंड में प्रभाव है. कुशवाहा समाज से 8 विधायक हैं. इनमें से ग्वालियर ग्रामीण से विधायक भारत सिंह कुशवाहा शिवराज सरकार में राज्यमंत्री हैं. मध्यप्रदेश के विंध्य क्षेत्र में ब्राह्मणों की आबादी बहुत ज्यादा है. यहां करीब 14 प्रतिशत ब्राह्मण वोटर हैं. जानकारी के अनुसार राज्य के 29 प्रतिशत सवर्ण वोटर विंध्य क्षेत्र से ही आते हैं. विंध्य में 23 सीटें ऐसी हैं जहां ब्राह्मण आबादी 30 प्रतिशत से भी ज्यादा है. प्रदेश में विंध्य के अलावा महाकौशल और चंबल अंचल की करीब 60 से अधिक सीटों पर ये निर्णायक वोटर हैं.

पार्टियों की किस पर नजर: बीजेपी हो या कांग्रेस या अन्य कोई पार्टी सभी ने प्रत्याशियों को टिकट देते समय उस क्षेत्र की जातिगत समीकरण को ध्यान में रखा है. 2018 के चुनाव की बात की जाए तो एमपी में कांग्रेस डेढ़ दर्जन समाजों को साधने में सफल हो गई थी. जिसका फायदा उसे चुनाव में जबरदस्त तरीके से मिला था. कुछ इसी आधार पर शिवराज सरकार ने अपने इस कार्यकाल में एक दर्जन से ज्यादा समाजों के बोर्ड गठित किए थे जो 100 से ज्यादा सीटों पर दबदबा रखते हैं. उन्होंने हर जाति और वर्ग को साधने में कोई कोर कसर बाकी नहीं छोड़ी है.

बीजेपी-कांग्रेस का कहां है जोर: बीजेपी और कांग्रेस की 230 में से 142 सीटों पर नजर है. इनमें आरक्षित 82 सीटें और 60 ओबीसी सीटें शामिल हैं. पीएम मोदी के कई दौरे ऐसे ही जगह थे जो बीजेपी की बड़ी रणनीति का हिस्सा थे. बुंदेलखंड में कुल 26 सीटें हैं और सागर को इस क्षेत्र का सेंटर माना जाता है. यहां सबसे अधिक दलित मतदाता है. उज्जैन-इंदौर के बाद सागर ही ऐसा जिला है जहां सबसे ज्यादा दलित वोटर्स हैं. वहीं कांग्रेस के स्टार प्रचारकों के दौरे भी ऐसी ही सीटों पर तय किए गए थे. कुल मिलाकर देखा जाए तो एमपी में जातिगत समीकरणों के आधार पर ही पार्टियां चुनाव लड़ रहीं हैं. बीजेपी और कांग्रेस यहां अपनी रणनीति में कितनी कामयाब होंगी यह तो नतीजे ही तय करेंगे. लेकिन इतना तो तय है कि एमपी की सियासी बिसात में ब्राह्मण,राजपूत के अलावा एससी,एसटी और ओबीसी मतदाता ही तय करता है कि जीत का सेहरा किसके सिर बंधेगा.

जातियों का रोल कितना अहम: एमपी में 230 विधानसभा सीटों में से लगभग 190 सीटों पर जाति आधारित वोटर्स सबसे बड़ा फैक्टर है. एक अनुमान के मुताबिक मध्यप्रदेश में 65 से 70 प्रतिशत वोटर्स जातियों के आधार पर वोट करते हैं. इसके बाद बचे हुए मतदाता अपने क्षेत्र में प्रत्याशी की छवि और विकास का पैमाना देखते हैं. ब्राम्हण, राजपूत, लोधी, कुशवाहा और यादव समाज एमपी की 230 विधानसभा सीट में से लगभग 100 सीटों पर इन जातियों का वर्चस्व है और ये जातियां भी सरकार का समीकरण बनाती और बिगाड़ती हैं. राजपूत समाज की बात की जाए तो उनकी यहां करीब 65 लाख की आबादी है. प्रदेश की 230 सीटों में से 34 सीटों पर इस समाज के विधायक हैं और राजनीतिक दबदबा रखते हैं. पिछले कुछ विधानसभा चुनावों में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व घटा है. 2018 में कांग्रेस से आरिफ अकील और आरिफ मसूद भोपाल से चुनाव जीते थे. लेकिन कहा जाए तो मुसलमान मतदाता कई सीटों पर चुनाव परिणाम पर प्रभाव डालते हैं.

MP में कुशवाहा समाज के लोगों का ग्वालियर-चंबल और सागर संभाग में प्रभाव है. कुशवाहा समाज से 8 विधायक हैं. इनमें से ग्वालियर ग्रामीण से विधायक भारत सिंह कुशवाहा शिवराज सरकार में राज्यमंत्री हैं. मध्यप्रदेश के विंध्य क्षेत्र में ब्राह्मणों की आबादी बहुत ज्यादा है. यहां करीब 14 प्रतिशत ब्राह्मण वोटर हैं. जानकारी के अनुसार राज्य के 29 प्रतिशत सवर्ण वोटर विंध्य क्षेत्र से ही आते हैं. विंध्य में 23 सीटें ऐसी हैं जहां ब्राह्मण आबादी 30 प्रतिशत से भी ज्यादा है. प्रदेश में विंध्य के अलावा महाकौशल और चंबल अंचल की करीब 60 से अधिक सीटों पर ये निर्णायक वोटर हैं.

पार्टियों की नजर:बीजेपी हो या कांग्रेस या अन्य कोई पार्टी सभी ने प्रत्याशियों को टिकट देते समय उस क्षेत्र की जातिगत समीकरण को ध्यान में रखा है. 2018 के चुनाव की बात की जाए तो एमपी में कांग्रेस डेढ़ दर्जन समाजों को साधने में सफल हो गई थी. जिसका फायदा उसे चुनाव में जबरदस्त तरीके से मिला था. कुछ इसी आधार पर शिवराज सरकार ने अपने इस कार्यकाल में एक दर्जन से ज्यादा समाजों के बोर्ड गठित किए थे जो 100 से ज्यादा सीटों पर दबदबा रखते हैं. उन्होंने हर जाति और वर्ग को साधने में कोई कोर कसर बाकी नहीं छोड़ी है.

बीजेपी का कहां है जोर: बीजेपी की 230 में से 142 सीटों पर नजर है. इनमें आरक्षित 82 सीटें और 60 ओबीसी सीटें शामिल हैं. पीएम मोदी के कई दौरे ऐसे ही जगह थे जो बीजेपी की बड़ी रणनीति का हिस्सा थे. बुंदेलखंड में कुल 26 सीटें हैं और सागर को इस क्षेत्र का सेंटर माना जाता है. यहां सबसे अधिक दलित मतदाता है. उज्जैन-इंदौर के बाद सागर ही ऐसा जिला है जहां सबसे ज्यादा दलित वोटर्स हैं. कुल मिलाकर देखा जाए तो एमपी में जातिगत समीकरणों के आधार पर ही पार्टियां चुनाव लड़ रहीं हैं. बीजेपी और कांग्रेस यहां अपनी रणनीति में कितनी कामयाब होंगी यह तो नतीजे ही तय करेंगे. लेकिन इतना तो तय है कि एमपी की सियासी बिसात में राजपूत और ब्राह्मण के अलावा एससी,एसटी और ओबीसी मतदाता ही तय करता है कि जीत का सेहरा किसके सिर बंधेगा.

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