भोपाल।जिस भगोरिया पर होली भी अपना रंग न चढ़ा पाई, क्या फागुन के असल रंग समेटे आदिम समाज के इस उत्सव में अब शहरी मिलावट आ रही है? लाल, हरे, पीले, नारंगी, चटख रंग तो वही हैं लेकिन ढंग बदल गया है. क्या प्रेम के इजहार के पर्व में बदलाव आया है? भगोरिया जिस प्रकृति के उत्सव के लिए जाना जाता है, उसमें शामिल मांदल की थाप और बांसुरी के सुर में कितना फर्क आया है? जिन आदिवासियों से सीखा शहरी लोगों ने उत्सव का ड्रेस कोड, आज उसी में बदलाव आ गया है. जिन आदिवासियों के रिवाज से लड़की के मन का मान रखना सीखा, वह भी बदलने लगा है. ये शहरी मिलावट कहीं भगोरिया के असल रंग तो नहीं छीन लेगी?
भगोरिया का रूप हो रहा विलुप्त:भगोरिया के रंग बदल रहे हैं. ऐसी कई तस्वीरें उसकी बानगी हैं. आप जहन में लिए बैठे हैं कि कोई आदिवासी नौजवान तीर कमान लिए भगोरिया में आता है और अपनी पसंद को चुनकर उसकी मर्जी के बाद उसे ले जाता है. ऐसा तो यूं भी नहीं होता यहां, लेकिन ये भी नहीं कि दिल पर दिल की मल्लिका का इस अंदाज में नाम गुदवाया जाए. हाथों पर गुदना के साथ उकेरे जाते रहे प्रेम के पहले अक्षर लेकिन इस तरह से नाम लिखवाया जाना बता रहा है कि प्रेम के आदिम रंगों में भी मिलावट आ गई है. ये आंखों से उतरकर दिल में दर्ज हो जाने वाला अहसास होता है. भगोरिया में भरी हाट के बीच कौन से 2 प्रेमी साथ जीने मरने की कसम खा चुके, ये कोई नहीं जान पाता था जब तक वे हाथ न थाम लें. इस तरह से टैटू लिखवाकर ये एलान भगोरिया की पहचान तो नहीं था. भगोरिया की खूबसूरती ही यही थी कि उत्सव में झूमते, नाचते-गाते रंगों से सराबोर हुए युवक और युवतियां जब एक दूसरे को चुन लेते हैं तो मेला इससे बेखबर रहता है. मेले में कौन सा एक जोड़ा है जो प्रेम में गुम हो गया है ये नाम गुदवाने से ही पता चल पाता है.