भोपाल। रात की मल्लिका..नाचने वाली..हसीना और धड़कन जैसे कई नाम तो दे दिए..लेकिन बेड़िया समाज की ये औरतें समाज में लौटना चाहें तो सम्मान की जिंदगी में रास्ता नहीं इन्हें बेड़ियां ही मिली है. जो पहचान इन्हें मिली है. वो इनके बच्चों तक न पहुंचे इसलिए झूमते-झूमते थक चुकी बेड़िया जाति की ये महिलाएं अपने लिए भी अब सुकून और सम्मान का काम चाहती हैं. बच्चों के लिए सम्मानजनक नौकरी चाहती हैं, लेकिन इसके पीछे नाम की पहचान काफी मुश्किल है. समाज से मिले और सिस्टम में खड़े इस मुश्किल सवाल का इनके पास कोई जवाब नहीं है.
कहां से लाएं पिता का रिकॉर्ड:बलिया बाई (परिवर्तित नाम) शुरुआत इसी सवाल से करती हैं. कौन चाहता है रात भर नाचना? कौन चाहता है इस उम्र में भी छेड़छाड़ हो? मैने HIV के कार्यक्रम में एजुकेटर की ट्रेनिंग ली थी. पंद्रह सौ रुपये मिलते थे. इसी के दम पर आशा कार्यकर्ता के लिए भी कोशिश की, लेकिन जाति प्रमाण पत्र में काम अटक गया. मेरे पास जाति का कोई प्रमाण नहीं है. मैने यहीं काम करके अपने बच्चों को पढ़ाया-लिखाया. अब उनकी सरकारी नौकरी लगवानी है. उनके भी जाति प्रमाण-पत्र चाहिए. बनवाने जाओ तो कहते हैं पिता का रिकॉर्ड लाओ. बाप का नाम निकलवाओ. हम कहां से और कितने बाप का नाम दे दें. वो तो छोड़ जाते हैं. और कह देते हैं तुम बच्चों के साथ रहना हम आएंगे. जाने के बाद भला कौन लौट के आता है?
नर्सिंग का कोर्स अटका: सुशीला बाई (परिवर्तित नाम) मैं इस काम से थक चुकी हूं. छोड़ना चाहती हूं. मेरी मां नर्सिंग का कोर्स करवा रही थी कि नौकरी लग जाएगी तो रात रात भटकना नहीं पड़ेगा, लेकिन वहां जाति प्रमाण पत्र मांग रहे हैं. सुशीला को अपनी बेटी का नाम भी लाड़ली लक्ष्मी योजना में दर्ज करवाना है. वहां भी ये प्रमाण चाहिए. प्रमाण पत्र बनवाने जाओ तो पिता के नाम का सवाल पूछा जाता है. सुशीला कहती है, सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिल पाता. अब लाड़ली बहन में हजार रुपए मिलेंगे या नहीं वो भी पता नहीं. क्योंकि हमारे पास अपनी जाति का कोई प्रमाण नहीं.
जब तक नूर तब तक न्यौछावर:प्रिया (परिवर्तित नाम) अभी 18 साल की है. उसकी मां कहती है अभी इसकी मार्केट में काफी डिमांड है. लोग उसे रूप की मल्लिका कहते हैं. जब तक खूबसूरती रहती है तब तक खूब न्यौछावर होती है. नई नवेली और यौवन से खिली लड़कियों के लिए लाइन लगी रहती है. 40 साल के बाद फिर कोई नहीं पूछता है. उम्र ढलने के साथ धंधा ढलने लगता है. गांव में कई ऐसी महिलाएं हैं जो अब अपनी बेटियों के भरोसे हैं कि वो कमा के खिला दें या फिर काम धंधा ढूंढ़ रही हैं. एक रात के इन्हें 2 हजार से 4 हजार तक मिलते हैं. कई बार पूरी रात नाचना पड़ता है. न्यौछावर अलग से मिलती है. प्रिया कहती है कि, जब तक न्यौछावर चलती रहती है. तब तक हमारे पैर नहीं रुकते. नोट उड़ते रहतें हैं हम नाचते रहते हैं. फिर जो अच्छी लगती है उसे लेकर चले जाते हैं. जो छूट जाती हैं धीरे-धीरे उनको काम मिलना बंद हो जाता है.
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