भोपाल। हर साल दुनिया भर में 8 मार्च को इंटरनेशनल वुमेंस डे मनाया जाता है. ये दिन महिलाओं की सफलताओं को दर्शाता है. खास तौर पर लोगों को महिलाओं के अधिकारों और समानता के बारे में जागरुक करने के लिए इस दिवस को सेलिब्रेट किया जाता है. महिला सशक्तिकरण की मिसाले आज से ही नहीं, बल्कि सदियों से चली आ रही है. रानी लक्ष्मी बाई, दुर्गावती, देवी अहिल्याबाई जैसी कई शख्सियत ने देश को आजाद कराने के लिए अंग्रेजों से डट कर मुकाबला किया था.
रानी लक्ष्मी बाई की जीवन गाथा
रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवंबर 1828 को वाराणसी शहर में हुआ था. उनके बचपन का नाम मणिकर्णिका था. उन्हें प्यास से मनू भी बुलाया जाता था. उनके पिता का नाम मोरोपंत ताम्बे थे, जो मराठा बाजीराव की सेवा में थे. माता का नाम भागीरथी सप्रे था. जब लक्ष्मी बाई महज 4 साल की थी, तभी उनकी माता का देहांत हो गया था. मां के निधन के बाद मनू की देखभाल के लिए कोई नहीं था. इसलिए पिता उसे बाजीराव के दरबार ले गए. वहां उसे सभी छबीली कहने लगे.
मनू पढ़ने और लिखने में सक्षम थी. बचपन में अपनी उम्र के अन्य लोगों की तुलना में वह अधिक स्वतंत्र थी. वह शूटिंग, घुड़सवारी और तलवारबाजी में परिपूर्ण थीं, जो उस समय भारतीय समाज में महिलाओं के लिए सांस्कृतिक उम्मीदों के विपरीत थी.
14 साल की उम्र में उनकी शादी 1842 में झांसी के महाराजा गंगाधर राव से हुई. इस तरह वह झांसी की रानी बन गई. उनका नाम बदलकर लक्ष्मी बाई रख दिया गया. सन् 1851 में लक्ष्मी बाई और गंगाधर राव को एक बच्चा हुआ, लेकिन चार माह के उम्र में ही उसकी मौत हो गई. उधर 21 नवंबर 1853 में गंगाधर राव का निधन हो गया. इसके उपरांत उन्होंने बच्चा गोद लिया, जिसका नाम दामोदर राव रखा गया.