हैदराबाद। संत कबीर दास एक महान कवि और समाज सुधारक थे. भारतीय समाज में उन्हें बेहद सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है. संत कबीर दास जी ने अपने दोहों के माध्यम से जीवन और संसार का सार समझाया है. उन का भक्ति आंदोलन पर गहरा प्रभाव पड़ा। उन की वाणी सिक्खों के धार्मिक ग्रंथ श्री गुरू ग्रंथ साहिब में भी दर्ज हैं.
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाही.
सब अंधियारा मिट गया, दीपक देखा माही.
जब मेरे अंदर अहंकार था, तब मेरे ह्रदय में ईश्वर का वास नहीं था और अब मेरे ह्रदय में ईश्वर का वास है तो अहंकार नहीं है. जब से मैंने गुरु रूपी दीपक को पाया है तब से मेरे अंदर का अंधकार खत्म हो गया है.
प्रेम न बारी उपजे, प्रेम न हाट बिकाए.
राजा-प्रजा जो ही रुचे, सिस दे ही ले जाए.
प्रेम खेत में नहीं उगता है और न ही बाजार में बिकता है. प्रेम ऐसा खजाना है जो किसी के मन को अच्छा लगे तो फिर भले ही वह व्यक्ति राजा हो या प्रजा, वो अपना सिर कटाकर भी उसे प्राप्त करने के लिए तैयार रहता है.
नहाये-धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाए.
मीन सदा जल में रहे, धोये बास न जाए.
अगर आपका मन साफ नहीं है तो नहाने और साफ कपड़े पहनने का क्या फायदा, जिस प्रकार मछली जीवन भर पानी में रहती है, फिर भी उससे तेज बदबू आती रहती है.
प्रेम पियाला जो पिए, सिस दक्षिणा देय.
लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय.
सच्चा प्रेमी और भक्त अपना सब कुछ सहर्ष त्याग देता है, जबकि लालची इंसान प्रेम पाने की उम्मीद रखता है और सिर्फ दिखावा करता है.
कबीरा सोई पीर है, जो जाने पर पीर.
जो पर पीर न जानही, सो का पीर में पीर.