भोपाल। पर्दे का जमाना था वो, औरतों को देहरी पार जाने की इजाजत नहीं थी, लेकिन उस दौर में भी एक बेगम थी जो अंग्रेजों के सामने हौसले से खड़ी थी. अंग्रेज अफसर को ललकारती कह रही थी, जिसके सिर मेरी जूती पड़ती है, फिर वो ग्रीफन बन जाता है. भोपाल पर राज करने वाली बेगम, जिन्हें इतिहास में बाद में जिद्दी शासक भी कहा गया. उसकी जिद के आगे अंग्रेज अफसरों ने भी हार मानी, क्यों कांपते थे अफसर उस बेगम के नाम से... गुलाम भारत के दौर में एक बेगम कैसे अपनी जज्बे से अंग्रेजों को मात दे रही थी.
बेगम, जिसने अंग्रेज अफसर को उसकी हैसियत याद दिलाई:26 अक्टूबर 1885 का दिन था, भोपाल के शौकत महल में दरबार सजा था. रियासत के ओहेदेदार एजेंट वायसराय का संदेश पढ़कर सुना रहे थे, कह रहे थे सिद्दीक हसन से उनका खिताब वालसा अमीर उल मुल्क वापिस लिया जाता है. 17 तोपों की उन्हें जो सलामी दी जाती है, वो भी खत्म की जाती है. सिद्दीक हसन रियासत के मामलों में दखलंदाजी भी नहीं कर सकेंगे. शाहजहां बेगम के दरबार में ये सबकुछ हो रहा था, इतिहासकार सैय्यद खालिद गनी बताते हैं "ये वाकया इतिहास में दर्ज है कि किस तरह से शाहजहा बेगम ने एजेंट ग्रीफन का संदेश पूरा भी नहीं होने दिया और अपने शौहर सिद्दीक हसन का हाथ थामकर बोलीं शाहजहां की जूती जिसके सिर पड़ती है, वो ग्रीफन बन जाता है. ये वो दौर था कि जब रियासतें में बैठे हुक्मरानों की आवाज नहीं निकलती थी, अंग्रेजों के आगे तक एक बेगम ने अंग्रेजों के सामने ये हिम्मत दिखाई और सबसे बड़ी बात ये सिर्फ अल्फाज नहीं थे. उस समय ग्रीफन का भोपाल में ठहरना मुश्किल हो गया था, लाल कोठी में जाकर उन्हें पनाह लेनी पड़ी थी."