भोपाल। संगठन में दायित्व की बात हो या फिर सत्ता चलानी हो, बीजेपी दिग्गज नेता शिवराज सिंह चौहान ने एक राजनेता की हैसियत से खुद को हर पैमाने पर साबित किया है.तभी तो कांग्रेस को करीब 13 सालों तक वे मध्यप्रदेश की सत्ता से दूर रख सके. हालांकि 2018 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को मिली शिकस्त ने संगठन में शिवराज की छवि पर बट्टा लगा दिया. लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में ये दाग धुल गया. साल 2020 की शुरूआत हुई. मध्यप्रदेश की सियासत में तूफान उठा और फिर शिवराज ने इतिहास रचते हुए चौथी बार मुख्यमंत्री की शपथ ली. लेकिन ये इतना आसान नहीं था. आइए जानते हैं कि 2020 सीएम शिवराज के लिए कैसा रहा...
साल 2020 की शुरूआत...
जनवरी 2020 में कमलनाथ, राज्य की बागडोर संभाल रहे थे. इस दौरान शिवराज लगातार किसान कर्ज माफी को लेकर राज्य सरकार को घेरने में लगे हुए थे. उधर बीजेपी लंबे समय से ही मध्यप्रदेश में ऑपरेशन कमल ऑपरेट करने की जुगत में थी. पर्दे के पीछे का खेल शुरू हो चुका था. इसी बीच शिवराज महाराज यानी सिंधिया से मिले. हालांकि की ये सामान्य मुलाकात ही थी. लेकिन सियासत की बिसात बिछ चुकी थी. कुछ दिनों बाद सिंधिया के बगावती तेवर दिखने लगे. अपनी ही पार्टी के खिलाफ सड़क पर उतरने जैसी बयानबाजी हुई. उसके बाद कांग्रेस में स्थितियां बिगड़ती गईं. ऑपरेशन कमल के खिलाड़ियों ने अपना काम करना शुरू कर दिया था. लेकिन सीधे तौर पर शिवराज इस सूची में शामिल नहीं थे. जिसके बाद अटकलें लगाईं जा रहीं थीं कि अगर कांग्रेस की सरकार गिरती है तो मध्यप्रदेश में बीजेपी बतौर मुख्यमंत्री किसी नए चेहरे को पेश कर सकती है. शिवराज को केंद्र में कोई जिम्मेदारी दी जा सकती है.
पार्टी की अंदरूनी लड़ाई जीती
बीजेपी की तरफ से सीएम उम्मीदरवारों में केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर, नरोत्तम मिश्रा, गोपाल भार्गव समेत कई दिग्गज नेताओं के नाम सामने आ रहे थे. ऐसे में शिवराज पार्टी आलाकमान को ये संदेश देने में कामयाब रहे कि वे मध्यप्रदेश में ही काम करना चाहते हैं और नेतृत्व में ही बीजेपी दोबारा सत्ता पर काबिज हो सकती है. बीजेपी का ऑपरेशन कमल एक्सीक्यूट हुआ. सिंधिया बीजेपी में शामिल हुए. 22 सिंधिया समर्थक विधायकों ने इस्तीफा दे दिया और कमलनाथ सरकार अल्पमत में आ गई. रिसोर्ट पॉलिटिक्स से होते हुए मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा और बात फ्लोर टेस्ट तक पहुंच गई. लेकिन उससे पहले ही कमलनाथ ने इस्तीफा दे दिया. जिसके बाद 23 मार्च को शिवराज ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली और पहली चुनौती पार कर ली.
सत्ता संभालते ही कोरोना से लड़ने की चुनौती
शिवराज के मुख्यमंत्री बनने के बाद की डगर और भी मुश्किल थी. जिसमें सबसे बड़ी चुनौती प्रदेश में फैल रहे कोरोना संक्रमण को रोकने के उपाय व लोगों को स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध करना था. यही वजह थी कि सीएम पद की शपथ लेते ही शिवराज वल्लभ भवन पहुंचे और अधिकारियों के साथ बैठक की. जिसमें प्रदेश में कोरोना से लड़ने की तैयारियों की जानकारी ली.
कोरोना एक बड़ी चुनौती
शिवराज ने कोरोना से बचाव को लेकर कई ऐसे हाथ कदम उठाए, ताकि मध्यप्रदेश में कोरोना को रोका जा सके. प्रदेश के कई बड़े अस्पतालों को कोविड-19 अस्पताल में तब्दील किया गया. कोरोना टेस्टिंग बढ़ाई गई. प्रवासी मजदूरों को दूसरे राज्यों से वापसी के लिए बसों का इंतजाम किया गया. खाने-पीने का इंतजाम हुए.
'वन मैन आर्मी बने शिवराज'
इसके बाद मंत्रिमंडल विस्तार की सरगरमी शुरू हुई.आखिर किसको कैबिनेट में जगह दी जाए. ये यक्ष प्रश्न था.क्योंकि सिंधिया खेमे के 6 मंत्रियों ने इस्तीफा देकर बीजेपी का दामन थामा था. लिहाजा शुरूआती दौर में टोटल लॉकडाउन और सियासी मंथन के चलते विस्तार को टाल दिया गया. इसी बीच शिवराज ने देश में अब तक बिना कैबिनेट के सबसे ज्यादा दिनों तक बतौर मुख्यमंत्री काम करने का नया रिकॉर्ड बना दिया. शिवराज ने पूरे 29 दिनों तक अकेले ही सरकार चलाई. इससे पहले ये रिकॉर्ड कर्नाटक के मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा के नाम था.
कैबिनेट गठन व चयन में संतुलन
आखिर वो दिन आ गया, जब सीएम शिवराज की कैबिनेट का गठन हुआ. लेकिन इस दौरान चाहकर भी शिवराज अपने खेम के नेताओं को मंत्रिमंडल में शामिल नहीं कर पाए. आलाकमान की मुहर के बाद 21 अप्रेल को शिवराज कैबिनेट में पांच मंत्री शामिल हुए. जिनमें दो सिंधिया समर्थक( तुलसी सिलावट, गोविंद सिंह राजपूत) थे. बाकि तीन मंत्रियों के चयन में जातिगत समीकरणों का ध्यान रखा गया. चंबल क्षेत्र के ब्राह्मण चेहरा माने जाने वाले नरोत्तम मिश्रा, ओबीसी के नुमाइंदे तौर पर कमल पटेल और बतौर अनुसूचित जाति-जनजाति के रिप्रिजेंटेटिव के रूप में मीना सिंह को जगह मिली.
कई दावेदार