भोपाल।जलवायु परिवर्तन अब एक ऐसा वैश्विक मुद्दा है, जो पूरी दुनिया के सामने एक चुनौती बन गया है. जिसके बारे में सोचने के लिए दुनिया के बड़े-बड़े देश मजबूर हो रहे हैं. पिछले पांच सालों से क्लाइमेट चेंज एक ज्वलंत मुद्दा बना हुआ है. जिसके कारण धरती का तापमान तेजी से बढ़ रहा है. साथ ही मौसम के चक्र में भी बदलाव नजर आ रहा है, जिसके कारण ग्लेशियर पिघल रहे हैं. साल 2015 में अस्तित्व में आए पेरिस क्लाइमेट समझौते के तहत दुनिया भर के करीब 179 देशों ने औपचारिक रूप से अपने अपने देश में ग्रीन हाउस गैसेज के प्रभाव को कम करने के लिए समझौते पर सहमति दी है. साल 2016 में भारत ने भी औपचारिक तौर पर इस समझौते पर हस्ताक्षर किए. वहीं अगर जलवायु परिवर्तन का असर मध्य प्रदेश के मौसम के संदर्भ में देखा जाए तो मौसम वैज्ञानिकों का मानना है कि पिछले कुछ सालों में प्रदेश के मौसम चक्र में जो बदलाव देखने को मिल रहे हैं वो इसी का नतीजा हैं.
जलवायु परिवर्तन - मुश्किलों का सफर मौसम पर प्रभाव
वरिष्ठ मौसम वैज्ञानिक वेद प्रकाश सिंह जलवायु परिवर्तन के असर के बारे में कहते हैं कि पूर्वी मध्यप्रदेश जलवायु परिवर्तन से ज्यादा प्रभावित हुआ है. पिछले करीब 30 से 50 साल का डाटा लेकर इसका अध्ययन किया गया है. एमपी के इन इलाकों में अक्टूबर के आखिर तक बारिश देखने को मिलती है, साथ ही बादल गरजने और बिजली गिरने की घटनाओं के साथ जो बारिश होती है उसमें भी इजाफा हुआ है. ऐसी घटनाएं पहले नहीं होती थीं. वहीं अगर पश्चिमी मध्य प्रदेश की बात करें तो ग्वालियर और चंबल का क्षेत्र में प्रभाव सीधे तौर पर देखा जा सकता है.
इन दोनों ही क्षेत्रों में बारिश घटी है. जबकि इंदौर-उज्जैन में बारिश की मात्रा बढ़ी है. बारिश होने के दिनों की संख्या भी बढ़ी है और साथ ही 24 घंटों में होने वाली वर्षा के आंकड़ों में बढ़ोतरी हुई है. इस साल 400 मिलीमीटर बारिश छिंदवाड़ा में दर्ज की गई है. अपवाद के रूप में भारी बारिश इंदौर डिविजन में देखने को मिली है. बारिश के नजरिए से यह एक तरीके का पैटर्न शिफ्ट है. वर्षा का वितरण और क्षेत्रीय वर्षा काल में भी बदलाव हुआ है, इसका मतलब यह है कि मानसून के प्रदेश में आने और वापसी के समय में बदलाव हुआ है.
जलवायु का कृषि पर असर
मध्य प्रदेश में मौसम चक्र परिवर्तन का असर कृषि पर भी हुआ है. मौसम वैज्ञानिक वेद प्रकाश सिंह कहते हैं कि जिस तरीके का बदलाव बारिश और तापमान के पैटर्न में हुआ है. वह ऐसा नहीं है कि केवल मानसून के शुरू होने और खत्म होने तक सिमट गया हो. जुलाई में जितनी बारिश पहले होती थी अब उतनी नहीं होती, अगस्त में अब ये ज्यादा हो रही है, सितंबर में कम और फिर अक्टूबर में ज्यादा हो रही है. तो अगर हम यह भी मान लें कि वर्षा काल देर से खत्म हो रहा है तो फसलों की बुआई में देरी भी कर दी जाए तो आगे जाकर हार्वेस्टिंग के समय पर नुकसान हो जाएगा. इसलिए कृषि में वैज्ञानिक विधि अपनाने की बहुत जरूरत है. साथ में हर क्षेत्र विशेष की वर्षा काल की दो वर्षा ऋतु के बीच जो अंतर है या फिर मानसून शुरू होने और वापसी का जो समय है उसके मुताबिक ही फसलों और उनके प्रजातियों का चयन करना होगा.
कृषि वैज्ञानिकों की राय
जलवायु परिवर्तन का असर मध्य प्रदेश की कृषि व्यवस्था पर कितना हुआ है. इस बारे में कृषि वैज्ञानिक योगेश द्विवेदी कहते हैं कि हमारे किसान काफी हद तक इससे प्रभावित हो रहे हैं. वर्तमान में 10 जिले ऐसे हैं जहां औसत से करीब 20 फीसदी कम वर्षा हुई है. ग्वालियर रीजन, कटनी से लेकर छतरपुर तक काफी कम बारिश हुई, तो वहीं दूसरी तरफ सागर से आगे की ओर भोपाल में 23 फीसदी ज्यादा बारिश हुई है. सीहोर में 37%, देवास में 40% ज्यादा बारिश हुई. इस तरह का जो बदलाव है उसके लिए हमारे किसान अभी तैयार नहीं हैं. अभी भी पहले की तरह ही खेती-बाड़ी चल रहा है. कोई किसान सोयाबीन बो रहा था तो वह अब भी वही बो रहा है, लेकिन किसानों को यह तरीका बदलना पड़ेगा. सबसे पहले जरूरत इस बात की है कि हमें मिश्रित फसल को लेकर चलना चाहिए.
जलवायु और कृषि
कृषि वैज्ञानिक ने किसानों का सलाह देते हुए बताया कि मालवा में जिन किसानों ने सोयाबीन के साथ दूसरी फसलें मक्का, तुअर लगाया हुआ है. वह किसान आज खेती को लेकर ज्यादा खुश हैं जबकि जिन किसानों ने सोयाबीन बोया था उनकी पूरी फसल नष्ट हो चुकी है. किसानों को अपनी पारंपरिक विधि में बदलाव लाने की जरूरत है. किसानों को मौसम विभाग से जानकारी लेकर ही फसलों को बोना चाहिए. वहीं नरसिंहपुर में किसानों ने धारवाड़ पद्धति अपनाई है. वहां के किसान मई के महीने में ही एक गमले में बीज बो देते हैं और जब वर्षा शुरू होती है तो उसका ट्रांसप्लांट खेत में कर देते हैं. इससे 2 महीने की बचत हो जाती है, साथ ही पौधा कम या ज्यादा बारिश को भी झेल लेता है.
इन बातों का ख्याल रखें किसान
अगर सीहोर और बाकी जिलों के किसान इस पद्धति को अपनाएं और निचले क्षेत्र में धान जैसी फसलों को लगाएं और ऊपरी क्षेत्र में तुअर, मक्का, सोयाबीन मिश्रित करके लगाएं तो इससे वातावरण के प्रभाव से हमारे किसान बच सकते हैं. इसके अलावा हमें ऐसे जीनोटाइप और ऐसे पौधे चाहिए जो कम और ज्यादा पानी दोनों ही अवस्थाओं में अपने आप को ढाल सकें. किसानों को ऐसे बीज उपलब्ध करवाना होगा और यह बात किसानों तक पहुंचानी भी जरूरी है. हाल के सालों में हुए मौसम परिवर्तन के कारण प्रदेश में बेमौसम बारिश और पाले के कारण किसानों को काफी नुकसान झेलना पड़ा है. फसल खराब होने के कारण किसानों की आत्महत्या के मामले भी सामने आए हैं. इसलिए यह बेहद जरूरी है कि बदलते मौसम चक्र को देखते हुए किसान अधिक वैज्ञानिक विधि अपनाएं.