भोपाल।साल था 1959 का, जब सीहोर जिले के जैत गांव में प्रेम सिंह चौहान के घर 5 मार्च को एक बालक पैदा हुआ. उसका नाम शिवराज रखा गया. तब किसे पता था कि ये बालक बड़ा होकर मध्यप्रदेश की सत्ता की चाबी अपने हाथ में ले लेगा. किसे पता था कि ये सबसे ज्यादा समय तक सीएम आवास में रहने वाला नेता बन जाएगा. किसे पता था कि शिवराज के नाम के साथ 'राज' इस कदर जुड़ जाएगा कि वे मध्यप्रदेश में सत्ता की चौथी सफल पारी खेलने वाले पहले नेता बन जाएंगे.
छात्र जीवन में दिखाया हुनर:16 साल की उम्र में शिवराज सिंह चौहान एबीवीपी से जुड़ गए. कॉलेज पहुंचे तो स्टूडेंट यूनियन के अध्यक्ष बने. सफर चलता रहा और भोपाल की बरकतउल्लाह यूनिवर्सिटी से एमए किया. यहां भी उनका राजनीतिक सफर जारी रहा. इस यूनिवर्सिटी से गोल्ड मैडल हासिल करने वाले शिवराज खुद मध्यप्रदेश के लिए गोल्ड मैडल बन गए.
ऐसे बने जननेता:शिवराज इमरजेंसी में जेल की सलाखों के पीछे भी रहे. कहा जाता है कि इन्हें भी कैलाश जोशी की तरह मीसाबंदी फली. जब शिवराज जेल से बाहर आए तो इनको एबीवीपी का संगठन मंत्री बना दिया गया. रणनीतिक प्रतिभा को देखते हुए इसके बाद शिवराज को युवाओं की कमान सौंपी गई और मध्यप्रदेश भारतीय जनता युवा मोर्चा का अध्यक्ष बनाया गया. अक्टूबर 1989 में शिवराज सिंह चौहान ने प्रदेशभर में क्रांति मशाल यात्रा निकाली. इस यात्रा का समापन भोपाल में हुआ. यहां लाखों की तादाद में युवाओं की भीड़ पहुंची और इस भीड़ ने शिव की कुंडली में राजयोग ला दिया. शिवराज अब नेता बन गए.
लड़े और जीतते गए:जब शिवराज सिंह चौहान युवा मोर्चा में थे, तब पदयात्रा खूब करते थे. इस कारण इन्हें पांव पांव वाले भैया के नाम से पहचाना जाने लगा. जमीन से जुड़े इस नेता पर नजर पड़ी भाजपा के दिग्गज नेता और मध्यप्रदेश के पूर्व सीएम सुंदरलाल पटवा की. 1990 में जब विधानसभा का चुनाव हुआ तो शिवराज ने युवा मोर्चा से जुड़े कई युवा नेताओं को टिकट दिलाई. शिवराज सिंह चौहान विधानसभा का चुनाव लड़ेंगे, यह तो तय था लेकिन यह तय नहीं था कि वे कहां से लड़ेंगे. उनकी राह विदिशा से सांसद बने राघवजी ने साफ कर दी. राघव जी को दिल्ली की राह पकड़नी थी. इससे पहले वे इलाके में अपना विश्वासपात्र बैठाना चाहते थे. उनकी सलाह थी कि शिवराज बुधनी से चुनाव लड़ें. यह फंसी हुई सीट थी लेकिन शिवराज लड़े और बखूबी जीते.
बीजेपी के लिए नाक का सवाल:राघवजी ने 1991 के चुनाव में विदिशा सीट से एक बार फिर लोकसभा का पर्चा भरा, लेकिन यहां से अटल बिहारी बाजपेयी ने भी पर्चा भर दिया. लालकृष्ण आडवाणी चाहते थे कि अटल जी को सुरक्षित सीट से चुनाव लड़ाया जाए. विदिशा ऐसी ही सीट थी. अटल विदिशा से चुनाव जीतें, यह मध्यप्रदेश भाजपा के लिए नाक का सवाल था. ऐसे में ये जिम्मा शिवराज को सौंपा गया. और अटल जीत गए. उन्होंने लखनऊ की सीट अपने पास रखी और विदिशा में उपचुनाव हुआ.