बालाघाट। मध्यप्रदेश में नक्सली एकबार फिर एक्टिव हो गए हैं. छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र की सीमा से लगे बालाघाट में नक्सली लगातार हमला कर रहे हैं. पिछले एक हफ्ते में ही नक्सलियों ने आगजनी की तीन घटनाओं को अंजाम दिया है जिसमें सड़क निर्माण कार्य में लगी मशीनरी सहित अन्य वाहनों को आग के हवाले कर दिया. ये नक्सलियों की बौखलाहट दिखाता है. दरअसल पिछले कुछ महीनों में नक्सलियों पर जिस तरह सुरक्षाबलों का दबाव बढ़ा है और एनकाउंटर में उनके शीर्ष नेता मारे गए हैं तब से अपनी खोई ज़मीन पाने के लिए नक्सली ऐसी वारदातों को अंजाम दे रहे हैं. तो क्या माना जाए, नक्सलियों का खात्मा नज़दीक है?(Maoist under pressure in MP), क्या गरीब आदिवासियों का नक्सलियों से मोहभंग हो रहा है?, क्या नक्सली अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं? ऐसे कई सवाल हैं जिन पर आगे चर्चा करेंगे.
मध्यप्रदेश में सिमट गया है नक्सलियों का साम्राज्य
छत्तीसगढ़ के अलग होने के बाद मध्यप्रदेश में नक्सल प्रभावित इलाके काफी कम रह गए लेकिन फिलहाल राज्य सरकार ने बालाघाट, मंडला और डिंडौरी ज़िलों को नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में रखा है.बालाघाट जि़ला छत्तीसगढ़ और महाराष्ट की सीमा से लगा हुआ है और ये नक्सलियों के जंगल के रास्ते आने-जाने के कॉरिडोर में पड़ता है. इसके अलावा पुलिस का दबाव बढ़ने पर नक्सली मंडला और डिंडौरी ज़िलों में भी शरण लेते हैं. नक्सलियों के खिलाफ बेहतर तालमेल के लिए बालाघाट, मंडला और डिंडौरी ज़िलों को मिलाकर एक आईजी ज़ोन बनाया गया है. 29 नवंबर को CM शिवराज सिंह चौहान को पुलिस अधिकारियों ने बताया गया कि पिछले 2 साल में 7 कट्टर माओवादी पुलिस एनकाउंटर में मारे गए जबकि 3 को गिरफ्तार किया गया.इनसे हथियार, गोला बारूद की बरामदगी हुई साथ ही, तेंदूपत्ता ठेकेदारों से जबरन वसूली पर भी रोक लगी है. अधिकारियों ने ये भी बताया कि इस दौरान माओवादियों को हथियार आपूर्ति करने के आरोप में 18 लोगों को गिरफ्तार किया गया. पुलिस के बढ़ते दबाव के कारण नक्सली अनाज, दवाओं के लिए तरस रहे हैं. संगठन की सप्लाई चेन बेहद कमजोर हो चुकी है. आंध्रप्रदेश के सप्लाई चेन से अनाज, दवाएं मंगवाई जा रही हैं.
नक्सलियों के सफाए से बौखलाहट
दरअसल नक्सलियों के खिलाफ सामूहिक ऑपरेशन से उनका मनोबल काफी हद तक टूटा है. 14 नवंबर को महाराष्ट्र के गढ़चिरौली में हुए एनकाउंटर में एकसाथ 26 नक्सली ढेर हो गए थे जिसमें जीवा नाम का माओवादी कमांडर भी शामिल था. छत्तीसगढ़, झारखंड में भी सुरक्षाबलों ने नक्सलियों के सफाए के लिए लगातार ऑपरेशन चलाए हैं जिससे उनकी ज़मीन हिल गई है. प्रतिबंधित नक्सली संगठन भाकपा-माओवादी(Banned Naxal outfit) के ईस्टर्न रीजनल ब्यूरो के सचिव प्रशांत बोस उर्फ किशन दा (Naxal leader Prashant Bose)और उनकी पत्नी शीला मरांडी (Sheila Marandi) को झारखंड पुलिस ने गिरफ्तार कर तगड़ा झटका दिया. पांच राज्यों का प्रमुख प्रशांत बोस माओवादियों के पोलित ब्यूरो का सदस्य था और उस पर 1 करोड़ रुपये का इनाम था. सुरक्षाबलों ने नक्सलियों पर लगातार दबाव बनाए रखा है, सर्च ऑपरेशन चलाए जा रहे हैं, एनकाउंटर किए जा रहे हैं, जिससे उन्हें अपनी खोई ज़मीन हासिल करने में मुश्किल आ रही है, यही वजह है कि अपनी मौजूदगी दर्ज कराने के लिए वो रह रह कर हमले कर रहे हैं.
आदिवासियों का नक्सलियों से मोहभंग
नक्सली भोले भाले आदिवासियों को बरगला कर, सरकार, प्रशासन के खिलाफ उनका ब्रेनवॉश कर और अच्छी ज़िन्दगी देने का लालच देकर अपने साथ मिलाने का काम करते रहे हैं.आदिवासी बहुल क्षेत्रों में गरीबी, बेरोज़गारी, अशिक्षा, बुनियादी सुविधाओं की कमी नक्सलियों को अपने मकसद में कामयाब होने में मदद करती है. नक्सली आदिवासियों को उकसा कर उन्हें भड़का न केवल उनके बीच पैठ बनाते हैं बल्कि अपने संगठन में शामिल होने के लिए आदिवासी युवाओं को प्रेरित करते हैं. लेकिन 50 साल से ज़्यादा समय हो गया आदिवासियों की ज़िन्दगी नहीं बदल पाए. सरकार ने ज़रूर पिछड़े आदिवासी इलाकों में सड़क, स्कूल, अस्पताल बनाने के साथ ही आदिवासी युवाओं को रोज़गार देने की मुहिम शुरू की है जिससे आदिवासियों का नक्सलियों से मोहभंग हो रहा है. अब नक्सलियों को अपने संगठन में भर्ती करने के लिए लोग भी नहीं मिल रहे. ऐसे में नक्सली आदिवासियों को डराने के लिए पुलिस का मुखबिर बताकर हत्याएं भी करते हैं. इसी साल जुलाई में बालाघाट में एक ग्रामीण और फिर नवंबर में 2 गांववालों की हत्या पुलिस का मुखबिर बताकर कर दी गई.
आदिवासी इलाकों में विकास नहीं चाहते नक्सली
नक्सली नहीं चाहते कि बालाघाट, डिंडौरी, मंडला के आदिवासी इलाकों में विकास की बयार बहे. ज़ाहिर है पिछड़े आदिवासी इलाकों में सड़क बनेगी स्कूल, अस्पताल खुलेंगे तो इलाके का पिछड़ापन गरीबी दूर होगी. ऐसे में नक्सली आदिवासियों को सरकार प्रशासन के खिलाफ भड़का नहीं पाएंगे. यही वजह है कि नक्सली सड़क निर्माण में लगे सरकारी कर्मचारियों ठेकेदारों पर हमले करते हैं, उनकी मशीनों में आग लगा देते हैं ताकि डर के मारे सड़कें न बन सके. सड़क न बनने के पीछे एक वजह ये भी है कि इससे सुरक्षाबलों का मूवमेंट आसान हो जाता है जिससे नक्सलियों की मुश्किल बढ़ जाती है.