अशोकनगर। कोई भी सरकार जनता के हित के लिए भले ही कितनी भी योजनाएं शुरू कर दे, पर असल में उन योजनाओं का दम निचले स्तर तक आते-आते निकल ही जाता है. सरकारी सिस्टम की दम तोड़ती ये तस्वीर बयां करती है कि किस तरह एक असहाय मां अपने बेसुध और लाचार कलेजे के टुकड़े को लेकर कभी अस्पताल, कभी राजधानी भोपाल तो कभी कलेक्टर की चौखट पर नाक रगड़ रही है. इस मां की बस एक ही गुहार है कि उसके बेटे का इलाज हो जाये.
सरकारी सिस्टम से हारी बेबस-लाचार मां, बेटे के इलाज के लिए दफ्तर-दफ्तर दे रही दस्तक
आमतौर पर हर मां बाप की इच्छा होती है कि उसके बच्चे बुढ़ापे की लाठी बने, लेकिन इसके उलट लापरवाह और संवेदनहीन सिस्टम के पैरों तले रौंदी जा रही एक बूढ़ी और बेबस मां बेटे की ही लाठी बन चुकी है. पिछले चार महीने से बेटे को लेकर भटक रही मां को ये तक नहीं पता कि उसके बेटे का मर्ज क्या है.
50 वर्षीय रधिया आदिवासी का 21 वर्षीय बेटा वीरन अदिवासी 4 माह पहले किसी वाहन से गिरकर घायल हो गया था. डॉक्टरों ने उस वक़्त उसे इलाज के लिए भोपाल रेफर कर दिया था. तब से ही रधिया की समस्याएं शुरू हो गईं. भोपाल के डॉक्टरों ने कुछ दिन इलाज कर वीरन को वापस जिला अस्पताल भेज दिया. वापस आने पर जिला अस्पताल में घायल वीरन को घर जाने की सलाह दे दी गयी, जबकि घायल वीरन की हालत में बिल्कुल भी सुधार नहीं हुआ था. एक मां जो कर सकती थी उसने किया. अपने पास से जमीन आदि बेचकर जैसे तैसे रधिया अपने बेटे का इलाज कराने कोटा ले गयी. वहां भी स्थिति में सुधार नहीं होने पर वह वापस जिला अस्पताल लेकर पहुंची तो सिर्फ दवा देकर उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया गया. आखिर थक हारकर असहाय मां ने कलेक्टर से गुहार लगाई. पर उसकी दुखती रग पर कलेक्टर साहब भी कोई मरहम न लगा सके.
जिला अस्पताल के मुख्य द्वार पर सरकारी सिस्टम में पिसती महिला सरकारी योजनाओं की हकीकत बयां कर रही है, डॉक्टर भी खामोश हैं और बेबस मां अपने बेटे को लिए इधर से उधर भटक रही है, ताकि कोई तो उसके दर्द का मरहम उपलब्ध करा दे, लेकिन संवेदनहीन दुनिया में इंसानों की कद्र ही कहां हैं, फिर भी वह इस बेदिल दुनिया से आस लगाये बैठी है.