ग्वालियर।ग्वालियर के ऐतिहासिक नगर निगम की सत्ता पर पूरे 57 साल से कब्जा जमाए हुए बैठी थी, लेकिन इस बार का चुनाव खास था, जिसकी वजह था सिंधिया परिवार. 70 के दशक से अंचल की सियासत पर सिंधिया परिवार का कब्जा रहा है, खास बात ये कि सिंधिया परिवार कांग्रेस में सभी टिकट बांटता रहा है, लेकिन अभी तक कभी भी ऐसा नहीं हुआ कि सिंधिया परिवार अपनी पार्टी के प्रत्याशियों के समर्थन में वोट मांगने सड़क पर उतरा हो. फिलहाल इस बार सब कुछ उलट-पुलट हुआ, सिंधिया इस बार कांग्रेस में नहीं बल्कि उसी बीजेपी में हैं जिसके खिलाफ वे लगातार अपने प्रत्याशी लड़ाते थे. बीजेपी के नेता हर चुनाव को गंभीरता से लेकर वोट मांगते है, इसलिए लोगों की निगाहें अब यह देखने पर लगीं है. सिंधिया परिवार ने पहली बार अपनी परंपरा को तोड़ते हुए नगर निगम मेयर और पार्षद प्रत्याशियों के लिए प्रचार किया, रोड शो किया और वोट मांगे, बावजूद इसके यहां से पहली दफा कांग्रेस प्रत्याशी शोभा सिकरवार ने ऐतिहासिक जीत दर्ज की. (MP Urban Body Election 2022) (Gwalior mayor 2022)
महारानी ने ली थी कांग्रेस की सदस्यता:स्वतंत्रता के बाद से ही सिंधिया परिवार का कांग्रेस में प्रवेश हो गया था, 1947 में देश आजाद हुआ और ग्वालियर रियासत का भारत सरकार में विलय हो गया. तत्कालीन महाराज जियाजी राव सिंधिया को भारत सरकार ने ब्रिटिश परम्परा की तरह उनको नव गठित मध्यभारत प्रान्त का राज्य प्रमुख बनाया गया था और उन्होंने ही राज्य के पहले मुख्यमंत्री सहित मंत्रिमंडल को शपथ दिलाई थी. राजतन्त्र समाप्त होने के बाद तत्कालीन महाराजा सिंधिया ने राजनीति में न जाने का फैसला किया था, लेकिन उनकी पत्नी महारानी विजयाराजे सिंधिया ने उप प्रधानमंत्री बल्लभ भाई पटेल के समक्ष कांग्रेस की सदस्यता ली थी. इसके बाद वे सांसद और विधायक रहीं, लेकिन 1967 में तत्कालीन मुख्यमंत्री द्वारिका प्रसाद मिश्रा से उनका विवाद हो गया और उन्होंने अपने समर्थक विधायकों के साथ कांग्रेस छोड़ दी और जनसंघ में शामिल हो गईं. इस तरह राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले और इंदिरा गांधी के सलाहकार पंडित डीपी मिश्र की सरकार का पतन हो गया और राजमाता के विधायकों के सहयोग से जनसंघ ने संभवत: देश की पहली गैर कांग्रेसी सरकार का गठन किया गया. जिसे इतिहास में संबिद सरकार के नाम से जाना जाता है.
कांग्रेस ने जीती थीं दो सीटें:इस घटनाक्रम के समय राजमाता के इकलौते पुत्र माधव राव सिंधिया लन्दन में रहकर पढ़ाई कर रहे थे, वे 1970 में लौटे और कुछ महीनों बाद 25 वीं वर्षगांठ मनाई. राजमाता ने उन्हें अपनी परम्परागत गुना संसदीय सीट गिफ्ट की और उन्हें वहां से जनसंघ के टिकट पर चुनाव लड़ाया और जीत हासिल की, लेकिन युवा माधवराव को जनसंघ के विचार और तौर-तरीके पसंद नहीं आए और राजमाता से भी अलगाव होने लगा, इस बीच तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में इमरजेंसी लगा दी. राजमाता को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया और उनके पुत्र माधव राव नेपाल चले गए, जहां उनकी बड़ी बहिन ऊषा राजे भी रहती थीं और स्वयं माधव राव की ससुराल भी थी. इसी दौरान माधव राव और इंदिरा गांधी के बीच नजदीकी बढ़ी, इमरजेंसी हटने के बाद आम चुनाव हुए तो माधव राव ने जनसंघ से चुनाव न लड़ने का फैसला किया. वे निर्दलीय मैदान में उतरे और कांग्रेस ने उनके खिलाफ अपना कोई प्रत्याशी नहीं उतारा. देश भर में चल रही कांग्रेस विरोधी लहर में पूरे उत्तर भारत से कांग्रेस साफ हो गई, स्वयं पीएम इंदिरा गांधी भी चुनाव नहीं जीत सकीं. मध्यप्रदेश में भी कांग्रेस का बुरा हाल हो गया, फिर भी दो लोकसभा सीटें पार्टी ने जीतीं. एक छिंदवाड़ा और दूसरी गुना. छिंदवाड़ा से कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गार्गी शंकर मिश्रा जीत गए और गुना से माधवराव जीते.