ग्वालियर। बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी,खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी. जी हां एक ऐसी वीरांगना की बात कर रहे हैं जिसकी बहादुरी ने अंग्रेजों को धूल चटा दी थी. वो वीरांगना थी झांसी की रानी लक्ष्मीबाई. जिनके युद्ध कौशल और वीरता के किस्से सुनकर आज भी नसों में खून खौल जाता है, भुजाएं फड़क उठतीं हैं. रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों से लड़ते हुए अपने साम्राज्य और देश की रक्षा में अपने प्राण न्योछावर कर दिए थे.रानी लक्ष्मी बाई का जन्म 19 नवंबर 1828 को उत्तर प्रदेश में हुआ था. उनकी जयंती है पर ईटीवी भारत आपको वीरांगना और ीरता की पूरी कहानी बता रहा है.
रानी लक्ष्मीबाई जयंती स्पेशल : ऐसी थी वीरांगना झांसी की रानी, जिसके शव को भी नहीं छू पाए थे अंग्रेज - birth-anniversary-of-rani-laxmibai
बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी,खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी. जी हां एक ऐसी वीरांगना की बात कर रहे हैं जिसकी बहादुरी ने अंग्रेजों को धूल चटा दी थी. वो वीरांगना थी झांसी की रानी लक्ष्मीबाई. जिनके युद्ध कौशल और वीरता के किस्से सुनकर आज भी नसों में खून खौल जाता है,
अपनी झांसी को बचाने के लिए आखिरी सांस तक अंग्रेजों से लड़ा युद्ध
वीरांगना रानी लक्ष्मी बाई का जन्म 19 नवंबर 1828 को बनारस के एक मराठी ब्राह्मण परिवार में हुआ था. बचपन से ही मनु और मणिकर्णिका के नाम से बुलाई जाने वाली यह वीरांगना साहसी और निडर स्वभाव की थी. मनु का विवाह झांसी के महाराजा राजा गंगाधर राव नेवलकर हुआ. विवाह के बाद वे लक्ष्मी बाई के नाम से पहचाने जाने लगीं. 1851 रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया परंतु 4 महीने की उम्र में उसकी मृत्यु हो गई. जिसके बाद 1858 में उन्होंने एक दत्तक पुत्र को गोद ले लिया. जिसका नाम दामोदर राव रखा गया. इसके कुछ ही दिनों बाद झांसी के राजा का निधन हो गया. ऐसा होते ही अंग्रेजों ने झांसी को अपने साम्राज्य में मिलाने की साजिश रची और अपनी हड़प नीति के तहत इसका फायदा उठाना शुरू कर दिया.अंग्रेजों ने दामोदर राव को झांसी का उत्तराधिकारी मानने से इंकार कर दिया और रानी लक्ष्मीबाई को झांसी का किला खाली करने का हुक्म सुना दिया. रानी ने अंग्रेजों के इस फरमान को मानने से इनकार कर दिया. रानी ने अंग्रजों के खिलाफ बगावत कर दी और जिसके बाद अंग्रजों और रानी लक्ष्मीबाई के बीच भयानक युद्ध हुआ.
18 जून 1858 को ग्वालियर किले पर अंग्रेजों ने रानी लक्ष्मीबाई को घेर लिया
18 जून 1858 का दिन झांसी की रानी वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई की वीर गाथा में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज है. इसी दिन रानी लक्ष्मीबाई ने ग्वालियर में स्थित संत गंगा दास की कुटिया में अपने प्राण त्याग दिए. 18 जून 1858 को जब झांसी की रानी दतिया और ग्वालियर को जीतते हुए ग्वालियर किले तक पहुंच गईं तब उन्होंने ग्वालियर के राजा सिंधिया से मदद मांगी, लेकिन वे वहां से खाली हाथ लौटीं तभी अंग्रेजों ने उन्हें घेर लिया और इसी समय एक अंग्रेज सैनिक ने उन पर भाले से हमला कर दिया जिसमें वे बुरी तरह घायल हो गई और उनका घोड़ा भी घायल हो गया. जब इस बात की जानकारी किले के नीचे बनी संत गंगा दास की कुटिया में रहने वाले साधू को पता लगी तो वे रानी को उठाकर अपनी कुटिया में ले आए.
लक्ष्मीबाई की शव की रक्षा करते 745 नागा साधु हुए थे शहीद
गंगा दास की कुटिया में रहने वाले साधु ने रानी को कुटिया लाकर उनका इलाज शुरू किया, लेकिन रानी को आभास हो गया था कि अब शायद वह बच नहीं पाएंगी, इसलिए उन्होंने साधु गंगादास से कहा कि बाबा मेरे शरीर को गोरे अंग्रेजों को नहीं छूने देना. बस इतना कहते ही रानी लक्ष्मीबाई ने प्राण त्याग दिए. इसी वक्त अंग्रेजों ने गंगादास की कुटिया पर हमला बोल दिया जहां रानी के शव की रक्षा करते हुए 745 नागा साधु संत शहीद हो गये थे.जब बाबा गंगादास को लगा कि इन निहत्थे साधुओं की दम पर अंग्रेजों से रानी के शव को बचाया नहीं जा सकता तो उन्होंने रानी की अंतिम इच्छा को पूरा करने के लिए घास फूस की बनी अपनी कुटिया में ही उनका अंतिम संस्कार कर दिया. आज भी गंगादास की शाला में वे अस्त्र शस्त्र सुरक्षित रखे हुए हैं जिनका इस्तेमाल करते हुए है साधू संतों ने अंग्रेजों से झांसी के रानी के शव को सुरक्षित रखा था. हर साल विजयादशमी के मौके पर इन अस्त्र शस्त्रों का प्रदर्शन किया जाता है.